उसे जागना तो नहीं कह सकते। जब रातभर सोऐ ही नहीं तो सवेरे जागना कैसा? उठे और कोठे से बाहर हम आये। पास बहते रजबाहे में मुंह धोया और इधर-उधर दृष्टि घुमाई। उस सुबह की शोभा का क्या कहना है! सूर्योदय से पूर्व जो लाल ओढ़नी आकाश ओढ़े रहता है वह लालिमा, पृथ्वी पर चारों ओर फैले हरियाली के दुशाले से संयोग कर तिरंगे का भान कराती थी। कितनी ही चिडियाऐं सुप्त प्राणियों को जगाने को चिंहुक रहीं थीं। यमुना तीर की सीलक देह के खुले रोओं से भीतर घुली जाती थी। उस भले वातावरण में मुझे माता की याद आई तो ह्रदय में हूक उठी। मां ही क्या, क्या घरवाले रात्रिभर चैन पाए होंगे? अब तक तो न जाने कहाँ ढूंढ पड गई होगी? परिजनों के पैर इधर से उधर न जाने कहाँ कहाँ दौड़ते फिरते होंगे? बुद्धि अवश्य ही बोध त्याग चुकी होगी। हम यह सब सोच कर अपने ही में छटपटाते थे। अपराध-बोध का भी ग्रास बने जाते थे। परंतु विश्व-दर्शन को यह कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी।
प्रथम स्वछंद (साईकिल) यात्रा — भाग 'एक'
घुमक्कड़ होना आसान चीज़ नहीं। और यह भी नहीं है कि चाहे जिस उम्र में यायावरी शुरू कर दी जाये। यह “जब जागो तब सवेरा” वाली चीज़ नहीं है। वास्तव में इसके बीजांकुर बालपन ही में फूटने लगते हैं। पश्चात, किसी वृक्ष की भांति फलने-फूलने के लिए इसे समय की खाद चाहिए, उम्र का अवलंब चाहिये, अनुभवों का जल चाहिये। “प्रथम परवाज़” ऐसे ही महत्वपूर्ण घटकों का—उन्मुक्त यायावरी के लिए आवश्यक—समेत किस्सागोई संग्रह है। लेखक के जीवन की यात्राओं—और स्वयं जीवन यात्रा ही—का प्रकाशन तो खैर बाद में होने वाला ही है परंतु यहां घुमक्कड़ी जीवन के आरंभिक दिनों के कुछ तजरबे प्रकाशमान किये देते हैं। हरियाणा प्रांत के बराही ग्राम से निकल कर जब पहिली दफा घुमक्कड़ी पथ पर पग रखा और उस दौरान जो कुछ देखा-भोगा उसका वर्णन किया जाता है।
प्रथम स्वछंद यात्रा — साईकिल पर
प्रथम परवाज़ के यह कुछ क्षण हैं जिन्हें-हमारा तो कहना ही क्या है-पाठकगण भी यात्रा-वृतांत की समाप्ति के उपरांत भुला नहीं सकेंगे। चलिये चल पड़िऐ कुछ कदम मेरे साथ, एक ऐसे सफर पर जो अब से सोलह बरस पुराना है मगर ताज़गी जैसे कल ही की लिऐ हुऐ है। एक नवतरुण की पहली उड़ान का सफ़र, पहले दुस्साहस की बात और घुमक्कड़ी को आहुत घर से निकल भागने की कहानी…
मेवाड़ का गौरव — चित्तौड़गढ़

“गढ़ तो चित्तौड़गढ़, बाक़ी सब गढ़ैया”- राजपूताना में अगर यह कहावत मशहूर है तो ऐसे ही नहीं है। वाक़ई में चित्तौड़गढ़ का किला बहुत ही विशालकाय है। राष्ट्रीय राजमार्ग 27, जिसे कि अब पूर्व-पश्चिम गलियारे के नाम से जाना जाता है चूंकि यह असमी सिलचर को गुजराती पोरबंदर से जोड़ता है, पर थोड़ा सा हटकर गंभीरी नदी के किनारे चित्तौड़गढ़ आबाद है। पहाड़ी के शिर पर किला तो तलहटी में आधुनिक नगर श्वास लेता है। मेवाड़ की इस धरा से हमारा प्रथम परिचय को प्राइमरी की किताबों ही में हो गया था जब हमें महाराणा प्रताप और राणा सांगा की वीरता और मीराबाई की कृष्णभक्ति के पाठ पढ़ाये जाते थे। भारतीय इतिहास के और भी कितने ही किरदार यहां अपनी भूमिकाएं अदा कर संसार से विदा हो चुके हैं। तो चलिए चले चलते हैं इस गौरवमयी भूमि से साक्षात्कार करने कुछ कदम मेरे साथ…
राजस्थान की नकाबपोश खूबसूरती — मयनाल महादेव, मेनाल

अद्वितीय रुप से सुंदर और आश्चर्यजनक रुप से गुमशुदा "मयनाल महादेव मंदिर परिसर" को राजस्थान की नकाबपोश खूबसूरती की ही संज्ञा दी जा सकती है। यहां खजुराहो के मंदिरों का प्रतिबिंबन करते मंदिर हैं, राजा पृथ्वीराज का तफ़रीह करने का महल है, सवा-सौ फीट उंचाई से गिरने वाला जलप्रपात है महानालेश्वर शिव मंदिर है और कुछ अन्य मंदिर जैसे बालाजी आदि तो हैं ही हरियल घास के दो बड़े लॉन भी पिकनिक मनाने के वास्ते हैं। इतना सब होने पर भी दिन-भर में जरा-भर से लोग यहां आते हैं, इनमें भी स्थानीय ही बहुमत में होते हैं। यह जगह इतनी शांत और प्यारी है कि पूरा दिन भर यहां बिता दें तो भी दिल न भरे। मित्रगणों के साथ हों या गृहस्थी के साथ, किसी भी तरह मेनाल आपको निराश नहीं कर सकता। चित्तौड़गढ-कोटा हाईवे पर स्थित होने के बावजूद इस जगह का गुमनाम रहना हैरान करता है। साढे आठ सौ बरस के पुष्टता से ज्ञात इतिहास वाले इस कमछुऐ स्थान के सफर पर चलिए चले चलते हैं, कुछ कदम मेरे साथ…
हाड़ौती का ग़रूर — बूंदी (राजस्थान)

अरावली पर्वत श्रृंखला के ऊपर स्थित, बुंदी के किले से सफेद और नीले पुतित घरों का एक विशाल विस्तार दिखता है। उन बिखरे हुए से भवनों में कुछ बडी पुरानी हवेलियां हैं जो क्षेत्र की समृद्ध विरासत से आगंतुक को अवगत करातीं हैं। बूंदी शहर तीन तरफा अरावली से घिरा पहाड़ियों के कंठ मध्य बसा हुआ जान पड़ता है। यह उठती-उतरती संकरी गलियों वाला नगर है। चौगान गेट के पास बहुधा परिस्थिति ऐसी हो जातीं है कि किसी चौपहिया वाहन के पास निकलने का कोई मार्ग नहीं होता। इन संकरी गलियों में खुलते मकानों, दुकानों और दालानों के दरवाजे़ आमतौर पर उंची सीढ़ियों वाले होते हैं। चौगान गेट की लगती बाज़ार बहुत बड़ी तो नहीं, किंतु हां, रंग-बिरंगे सामानों से युक्त जरुर है। मसाले, रंगीन लिबास, फल और दूसरी कितनी ही चीजें बिक्री के लिए वहां सजी धरी रहती हैं। बूंदी अपने सुशोभित क़िलों, महलों और बावड़ियों के लिए विदेश में बडा प्रसिद्ध है। जी हां, इस खूबसूरत नक्श के देसी कद्रदान कम ही हैं। कितने ही मंदिर भी इस नगर में शोभायमान हैं। वृहद इतिहास वाले इस कमछुऐ नगर के सफर पर चलिए चले चलते हैं, कुछ कदम मेरे साथ…