“गढ़ तो चित्तौड़गढ़, बाक़ी सब गढ़ैया”- राजपूताना में अगर यह कहावत मशहूर है तो ऐसे ही नहीं है। वाक़ई में चित्तौड़गढ़ का किला बहुत ही विशालकाय है। राष्ट्रीय राजमार्ग 27, जिसे कि अब पूर्व-पश्चिम गलियारे के नाम से जाना जाता है चूंकि यह असमी सिलचर को गुजराती पोरबंदर से जोड़ता है, पर थोड़ा सा हटकर गंभीरी नदी के किनारे चित्तौड़गढ़ आबाद है। पहाड़ी के शिर पर किला तो तलहटी में आधुनिक नगर श्वास लेता है। मेवाड़ की इस धरा से हमारा प्रथम परिचय को प्राइमरी की किताबों ही में हो गया था जब हमें महाराणा प्रताप और राणा सांगा की वीरता और मीराबाई की कृष्णभक्ति के पाठ पढ़ाये जाते थे। भारतीय इतिहास के और भी कितने ही किरदार यहां अपनी भूमिकाएं अदा कर संसार से विदा हो चुके हैं। तो चलिए चले चलते हैं इस गौरवमयी भूमि से साक्षात्कार करने कुछ कदम मेरे साथ…
चित्तौड़गढ़ भ्रमण यात्रा-वृतांत…
- इतिहास के झरोखे में चित्तौड़गढ़
- चित्तौड़गढ़ के दर्शनीय स्थल
- चित्तौड़गढ़ भ्रमण हेतु टिप्स व ट्रिक्स
- चित्तौड़गढ़ कैसे पहुंचें
- चित्तौड़गढ़ भ्रमण की तसवीरें
- चित्तौड़गढ़ के निकट अन्य पर्यटक स्थल
इतिहास के झरोखे में चित्तौड़गढ़…
चित्तौड़गढ़, अरावली की एक पहाड़ी पर बने अपने दुर्ग के लिए जगप्रसिद्ध है। यह कितना प्राचीन है वह मालूम निकालना तो एक दुःसाध्य कार्य है, किंतु एक कथा बतलाती है कि महाभारत काल में महाबली भीम ने अमरत्व के रहस्यों को समझने के लिए इस स्थान का दौरा किया और एक संत को अपना गुरु बनाया। कोई कहता है कि पारस सिद्ध करने हेतु वह यहां आये थे जिसके कि एवज़ में एक सन्यासी ने यहां एक दुर्ग के निर्माण की शर्त रखी थी। किंतु अधीरतापूर्वक या कि क्रोधवश होकर वह अपना लक्ष्य नहीं पा सके और प्रचंड गुस्से में आकर अपना पैर धरती पर दे मारा जिससे वहां पानी का स्रोत फूट पड़ा। आज वह स्थल भीमलात के नाम से कहा जाता है। किंतु यह एक दंतकथा है जिसकी सत्यता के प्रमाण लिखित में अनुपलब्ध हैं।
जो प्रमाण उपलब्ध हैं उन (अलबरुनी) के मुताबिक़ चित्तौड़ को पहिले जित्रोर के नाम से जाना जाता था जो पीछे अपभ्रंश होकर चित्तौड़ बना। जित्रोर नाम के पीछे उद्गम स्त्रोत जत्रि लोगों की यह शासन स्थली होना था जाति के जो जाट थे। इसके अतिरिक्त कुछ समय तक-नौवीं शताब्दी में-यहां मेद अथवा मद्र जाटों का भी राज रहा जिससे काल के कुछ खंड में यह स्थान मेदपाट के नाम से परिचय में रहा। यही क्यों इससे भी पहिले-ईसा से कई शताब्दियों पहिले-शिवि जाटों के शासनाधिकार में भी यह रहा है जिस समय कि यवनों का आक्रमण इधर हुआ था। उस समय के सिक्के तक खुदाई में प्राप्त हो चुके हैं और अब भी शिवियों का वह स्थान निशानों के साथ अस्तित्व में है। चित्तौड़गढ़ की यात्रा पर निकलते समय हमने वह स्थान देखने की ठहराई थी पर वैसा हो न सका। किंतु शीघ्र हम वहां जायेंगे अवश्य। (पढें: मेवाड़ पर जाट शासन का इतिहास)
पीछे यह स्थान मौर्य अथवा मूरी लोगों के अधीन आ गया। एक मतानुसार विचारधारा यह भी है कि प्रारंभ में यह किला इन्हीं मोर्यों ने चित्रकोट नाम से बनाया गया था पीछे जो अपभ्रंश होकर चित्तौड़गढ़ हो गया। यह मतभेद की बात है कि मेवाड़ वास्तव में राजपूतों के अधीन कब आया, हां इस पर मतैक्य है कि राजधानी को उदयपुर ले जाने से पहले यानि सन् 1568 तक चित्तौड़गढ़ मेवाड़ के राजपूत शासकों की राजधानी रहा। पश्चात जब तक कि यह सरकार अंग्रेजी के अधीन न हो गया, कभी राजपूत तो कभी मुगल यहां के अधीश्वर रहे।
चित्तौड़गढ़ के दर्शनीय स्थल…
आधुनिक शहर से अलग हटकर पहाड़ी पर मेवाड़ का गौरव और राजपूताने का सुप्रसिद्ध चित्तौड़गढ़ का दुर्ग बना हुआ है। यूनेस्को द्वारा राजपूताने में पांच पहाड़ी किले विश्व विरासत स्थल के रुप में दर्ज़ किए गये हैं, चित्तौड़गढ़ दुर्ग जिनमें से एक है। सैटेलाइट इमेजरी में यह एक विशालकाय व्हेल मछली के आकार में दिखाई देता है। दुर्ग की लंबाई यहां के स्थानीय गाइड 13 किलोमीटर की बताते हैं परंतु हमारे विचार से आदि से लगाकर लंबाई में अंत तक यह पांच-छह किलोमीटर से अधिक नहीं हो सकती। हां यह है कि इसका घेरा अवश्य दस-बारह किलोमीटर का हो सकता है। इस बात में मतभिन्नता नहीं हो सकती कि चित्तौड़ का दुर्ग बहुत विशाल है और एक दिन में भली प्रकार पूरे को देख डालना संभव नहीं। दर्जनों इमारतों और खंडहरों के साथ एक भरा-पूरा गांव भी दुर्ग में बसा हुआ है जो स्वयं को शासक महाराणाओं के वंशज भी बताते हैं। चित्तौड़गढ़, वह वीरभूमि है, जिसने शौर्य, राष्ट्रभक्ति एवं बलिदान का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया। पुरुष वीरों का तो कहना ही क्या है जबकि वीरांगनाओं ने भी पवित्रता की रक्षार्थ जौहर की अग्नि में प्रवेश कर उच्चादर्श स्थापित किये। किंतु उस दिशा में अधिक जाना विषयातीत हो जायेगा। तो इसलिए चित्तौड़गढ़ के दुर्ग के कुछ दर्शनीय स्थलों का वर्णन आगे किया जाता है।
किले की विशालकाय दीवारों को लांघ लेना कोई खेल की बात नहीं है। ये बेहद उंची और पत्थरों से निर्मित हैं। किले में प्रवेश के लिए एक के बाद एक-कुछ दूरियों पर-प्रवेशद्वार द्वार बने हुए हैं। राजपूताने में द्वारों को पोल कह दिया जाता है। चित्तौड़गढ़ दुर्ग के द्वार हैं:
- गणेश पोल
- जोड़ला पोल
- पाडन पोल
- भैरव पोल
- हनुमान पोल
- लक्ष्मण पोल
- राम पोल
गांव से निकल जाने पर सड़क के दोनों ओर भग्नावस्था में कुछ दुकानों की कतारें हैं। कहते हैं कि कभी यहाँ कीमती पत्थरों की दुकानें हुआ करती थी। हमारे विचार में यह रोजमर्रा के सामान की बिक्री का बाज़ार रहा होगा।
मोती बाजार के तुरंत बाद एक तिराहा है। यहां एक सड़क वहीं से आकर मिलती है जो राम-पोल से बायें मुड़ जाती है। एक द्वार पार करके इसी सड़क पर हम गये। पहले टिकटें ख़रीदीं और वहां के व्यवस्थित ढांचे का नजारा किया। यहां पर गाईड लोग ततैयों की भांति चिपटते हैं। पांच सौ से आरंभ होकर एक मेहरबान पचास रुपये की फीस तक लुढ़क आये। पीछे तो मुफ़्त ही में सेवा मिलने का मौका भी आया। किंतु वह वाकया हम चित्तौड़ यात्रा वृतांत की मुख्य कड़ी में सुना आये हैं तो पुनर्रुच्चारण की आवश्यकता नहीं जानते। अभी चलते हैं राणा कुंभा के महलों में।
कहते हैं कि इन महलों का जीर्णोद्धार महाराजा कुंभा द्वारा कराये जाने से इन महलों को महाराणा कुंभा का महल कहा जाता है। प्रवेश द्वार बड़ी पोल तथा त्रिपोलिया के नाम से जाने जाते हैं। खण्डहरों के रूप में होते हुए भी ये राजपूत शैली की उत्कृष्ट स्थापत्य कला को दर्शाते हैं। वास्तव में मुसलमान आक्रांताओं का कहर सबसे ज्यादा यहीं पर टूटा मालूम होता है। कुछ करामात हमारे गैर-जिम्मेदार पर्यटकों की भी है। सूरज गोरवड़ा, जनानखाना, कँवलदा महल, दीवान-ए-आम तथा शिव मंदिर इस महल के कुछ उल्लेखनीय हिस्से हैं। सुना है कि इन्हीं महलों में एक सुरंग के माध्यम से गोमुख कुंड तक जाया जा सकता था। हो सकता है कि ऐसी कोई सुरंग हो भी, पर कौन जाने? हमें ऐसी कोई सुरंग या तहखाना नजर नहीं आया जिसमें रानी पद्मिनी के अन्य हजारों वीरांगनाओं के संग जौहर कर लेने की बात यहां बताई जाती है। किसी आततायी से अपने सत की रक्षार्थ जीवित ही अग्नि में प्रवेश कर जाना जौहर कहलाता है। आह! कितना मजबूत ह्रदय चाहिये इसके लिये। राजपूताने में स्त्रियों की अस्मिता पर ऐसे हमले और भी हुए हैं और ऐसी वीरांगनाऐं भी हुईं हैं जिन्होंने शिकारी ही का शिकार कर लिया। परबतसर की जाट बाला ने ऐसे ही एक आततायी का सर काट लिया था। (पढ़ें: मारवाड़ की शूरवीर जाट कन्या)
यह एक आम धारणा है कि इसी ऐतिहासिक महल में उदयपुर के संस्थापक महाराणा उदयसिंह का जन्म हुआ था तथा यहीं स्वामीभक्त पन्नाधाय ने उदयसिंह की रक्षार्थ अपने लाडले पुत्र को बागी बनवीर के हाथों कत्ल हो जाने दिया। चित्तौड़गढ़ से हमारा पहला परिचय जब अंडर-प्राइमरी की किताबों में हुआ था तो यही पन्नाधाय तबसे हमारे स्मृति-पटल पर अंकित थीं। मेड़ते की मीराँबाई की कृष्ण भक्ति तथा विषपान की घटनाएँ भी इसी महल से संबद्ध है। मीरा महल इन खंडहरों का एक हिस्सा है, देखने से जिसे लगता है कि सिर पर न गिर पड़े। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इन धरोहरों को संभालने के क्रम में कुछ नये पत्थर भी लगाए हैं। त्रिपोलिया गेट की तरफ की बालकनी हालिया समय की लगाई हुई है। तजुर्बेकार चश्म बखूबी उन्हें पहिचान सकतीं हैं। समय की धूल जमाने हेतु और रंग में रंग मिला देने के लिए अभी उधर जाना मना है। मीराबाई के महल के साथ की मोटी दीवारों पर खड़े होकर यह पता चल जाता है कि चित्तौड़गढ़ बहुत बड़ा शहर है।
महाराणा फतहसिंह द्वारा निर्मित यह महल बिलकुल आधुनिक ढ़ंग का है। संस्थापक के नाम पर ही इन्हें फतह प्रकाश कहा जाता है। हमें बताया गया कि महल में गणेश की एक विशाल प्रतिमा, फव्वारा और अनेकों भित्ति चित्र मौजूद हैं। बाहर ही से इसे देख कर हम लौटे। चूंकि रिनोवेशन का काम चल रहा था तो अंदर जाने पर पाबंदी थी। बताया गया कि करोड़ों रुपया फतह प्रकाश की पुनः साज-सज्जा में खर्च कर दिया गया है।
बताते हैं कि महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद शाह खिलजी को सन् 1440 में प्रथम बार परास्त किया था। उसी विजय की स्मृति में यह स्तम्भ बनवाया गया था। वास्तव में यह स्तम्भ एक मीनार है जिसके अंदर सीढियाँ बनी हुईं हैं। 2016 तक यह आम लोगों के आवागमन के लिए खुला हुआ था। पर्यटक इसकी ऊपरी मंजिल तक जाते थे। फिर रखरखाव के प्रयोजनार्थ मोटे-मोटे ताले जड़ कर इसे बंद कर दिया गया। अब न जाने पुनः कब ये आम लोगों के लिए खुले। वास्तुकला की दृष्टि से विजय-स्तंभ बडी ही समृद्ध इमारत है। इसमें विष्णु के विभिन्न रुपों व अवतारों तथा ब्रह्मा, शिवादि भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं, अर्धनारीश्वर, दिक्पाल तथा रामायण तथा महाभारत के पात्रों की सैकड़ों मूर्तियाँ खुदी हुईं हैं।
कुंभा के महलों से इतर, विजय स्तंभ से नीचे उतर कर समाधीश्वर महादेव का भव्य मंदिर है। इसके भीतरी और बाहरी भाग पर बहुत ही सुन्दर, मन को मोह लेने वाला मूर्तियों का काम किया गया है। बताते हैं कि इसका निर्माण प्रसिद्ध मालवाई राजा भोज ने ११ वीं शती में करवाया था। इसे त्रिभुवन नारायण का शिवालय और भोज का मंदिर भी कहा जाता था। कारण कि इसके गर्भगृह में तीन मुखों वाली शिव की विशाल मूर्ति लगी हुई है। किंतु गर्भगृह की अपेक्षा हमें इसके बरामदे और बाहरी सज्जा ने मोह लिया। ऐसी गजब कारीगरी है कि भले घंटों देखते रहो, जी नहीं भरता। हाथियों की मूर्तियां हैं, नटराज कीं, शिवनाथ कीं और और भी असंख्य। कहना होगा कि बस जान पड़ने की कसर भर रह गई अन्यथा कमी संगतराश ने कुछ न बाक़ी रखी। क्रोध भी आता है और दुःख भी जब इस मंदिर की बाहरी मूर्तियों की भग्नावस्था देखते हैं। किस तरह प्रहार को वो हाथ चले होंगे जिन्होंने इन बुतों को खंडित किया होगा। मंदिर में दो शिलालेख भी हैं। मंदिर का दक्षिणी चबूतरा हालिया बना मालूम पड़ता है।
समाधीश्वर मंदिर के ठीक सामने एक ग्राउंड के उस पार उत्तरी जौहर द्वार है। यदि इसके साथ वाली लताओं की बाड़ी हटा दी जाये तो कुंभा के महल और समाधीश्वर मंदिर के बीच बगैर रुकावट का सीधा रास्ता होगा। कारीगरी का काम जौहर द्वार पर भी है। इसकी बडी उंची अट्टालिका है। यहां पर समाधीश्वर मंदिर की ओर मुख करके खड़े हो जायेंगे तो इसके पीछे कुंभा का महल होगा, बायें विजय-स्तंभ और दायें हाथ को दुर्ग की मजबूत दीवार दिखाई देगी। इन सारी सरंचनाओं के बीच में जो असमतल ग्राउंड बचेगा वह महासती स्थल है।
जैसा कि उपर महासती स्थल की पहिचान समझा चुके हैं।। इसमें प्रवेश के लिए पूर्व की ओर (विजय-स्तंभ की दिशा) तथा उत्तर की ओर (कुंभा महल की दिशा) में दो द्वार बने हैं। कहा जाता है कि चित्तौड़ पर बहादुर शाह के आक्रमण के समय इसी स्थान पर रानी कर्णावती ने सतीत्व की रक्षा हेतु तेरह हजार वीरांगनाओं सहित जौहर यानि अग्नि-प्रवेश किया था। इस स्थान की खुदाई करने पर राख़ की कई परतें मिलने से बात की पुष्टि होती है। कौन देख सका होगा उस करुण बलिदान को, अग्नि में एक के बाद छलांग लगाती मनुष्यता को, भभक कर भस्म होती नारी जाति की अस्मत को? सोच ही कर हमारी रुह सिहर जाती है। चित्तौड़गढ़ के इतिहास में मनुष्यता को जलाकर भस्म कर देने वालीं ऐसी तीन अग्नि-कथाऐं दर्ज़ हैं।
महासती स्थल से समाधीश्वर मंदिर से परे जल-संचित एक विशाल कुंड है। यही गौमुख कुण्ड है। इसकी बडी धार्मिक महत्ता है। लोग इसे पवित्र तीर्थ के रूप में मानते हैं और स्नान भी करते हैं। हमारे सामने भी कुछ लोग इसमें डुबकियां लगा रहे थे। कुण्ड के निकट ही उत्तरी किनारे पर-समाधीश्वर मंदिर की ओर-महाराणा रायमल के समय का बना पार्श्व जैन मंदिर है, जिसकी मूर्ति पर कन्नड़ लिपि में लेख है। लेख की बात हमारी समझ में नहीं आई कि दक्षिण की लिपि यहां पहुंची क्यूँकर? गौमुख कुण्ड से कुछ दूर दो ताल हाथी कुण्ड तथा खातण बावड़ी है। वास्तव में पूरे दुर्ग में जल-संचयन हेतु कई तालाब व बावड़ियां हैं। कुछ तो हैं भी बहुत बडे-बडे। इन्हें देख कर ही मालूम हो जाता है कि क्यों चित्तौड़ मेवाड़ की राजधानी चुना गया होगा। धरातल से उपर पहाड़ी पर, पत्थरों की मोटी दीवारों से सुरक्षित दुर्ग, जिसमें जल की समस्या न हो, ऐसा स्थान निश्चय ही राजधानी बनने लायक था।
कुंभ श्याम के मंदिर के दालान में एक छोटा मंदिर है, जिसे श्री कृष्ण भक्तिनी मीराँबाई का मंदिर कहते हैं। जाहिर है श्री कृष्ण की मूरत तो वहां होगी ही। मंदिर के सामने ही एक छोटी-सी छतरी बनी है। इसमें पद-चिन्ह जैसी आकृति हैं। कहते हैं कि ये संत रविदास के पैरों के निशान हैं।
गौमुख कुण्ड से करीब आधा या कुछ कम मील पर, तथा कालिका माता के मंदिर के पहिले जैमल-पत्ता के महल हैं, जो अभी भग्नावशेष के रूप में अवस्थित हैं। वर्तमान में इन्हें सेनापति की हवेली कहे दिया जाता है। राठौड़ जयमल और सिसोदिया पत्ता, अकबर की सेना के साथ युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये थे। महल के पूर्व में एक बड़ा तालाब है, जिसके तट पर बौद्धों के स्तूपनुमा सरंचनाएं हैं। इन स्तूपों का इतिहास रोशनी से युक्त नहीं है।
जयमल-पत्ता हवेलियों से आगे, इसी दिशा में, कालिका माता का सुन्दर व विशाल महल है। किंतु मूलतः यह काली माई ही का मंदिर रहा होगा, वैसा नहीं है। हमने भारत के कुछ सूर्य मंदिर देखे हैं। इसका डिजाइन उनसे मेल खाता प्रतीत होता है। मुसलमानों के आक्रमण के दौरान यह भी सूना कर दिया गया। इस पर चोटों के कितने भयंकर प्रहार किये गये होंगे, यह मंदिर को देखकर बाखूबी जाना जा सकता है। मंडप के बाहरी हिस्से में किये गये जीर्णोद्धार के कार्य दुर्दांतियों के प्रहारों को छुपा नहीं सके हैं। वर्षों के सूनेपन के बाद इसमें कालिका की मूर्ति स्थापित की गई। मंदिर के स्तम्भों, छतों तथा अन्तःद्वार पर खुदाई का काम बहुत बढ़िया है। बैसाख की शुक्ल अष्टमी को यहाँ एक विशाल मेला भी लगता है।
कालिका मंदिर से जरा आगे एक झील के किनारे रावल रत्नसिंह की रानी पद्मिनी के महल बने हुए हैं। एक छोटा महल पानी के बीच में बना है, जो जनाना महल कहलाता है व किनारे के महल मरदाने महल कहलाते हैं। पहली नजर में मरदाना महल जैसा कुछ आपको नज़र नहीं पड़ेगा और पश्चात बनी दीवारों के बीच घास के पार्कों में टहलते स्वयं को अनुभव करेंगे। मरदाना महल की इमारत, जोकि नीचे की मंजिल पर है, आमजन का जाना वहां प्रतिबंधित है। कहते हैं मरदाने महल ही में वो आईना है जिसमें खिलज़ी ने रानी पद्मिनी का अक्स देखा था। हमें एकमात्र संदेह इन महलों के इतना पुराना होने का है। देखने में सवा सात सौ वर्ष पुराने यह दिखते नहीं। जैसी मार सारे दुर्ग की इमारतों पर पड़ी है वैसी इन पर नजर नहीं आती, जनाना महल पर तो कतई नहीं। किंतु अज्ञात व अपुष्ट इतिहास का क्या ठीक? सो हम कुछ अधिक नहीं कहेंगे।
चित्तौड़गढ़ के किले में पद्मिनी महल से दक्षिण-पूर्व दो गुम्बद वाले खंडहर हैं, जिन्हे लोग गोरा और बादल के महल के रूप में जानते हैं। कहा जाता है गोरा महारानी पद्मिनी का चाचा था और बादल चचेरा भाई। हम कहते हैं कि यह निहायत बकवास है और शत: स्थानीयों या गाइडों ने फैलाई हुई है। वास्तव में गोरा-बादल दो नहीं अपितु एक ही मनुष्य था जो 1488 की राणा रायमल और ग्यासुद्दीन की लड़ाई में बहुत ही वीरता से लड़ा था। अकेला वह कई कई शत्रुओं को मारता था। वास्तव में वह एक जाट था जिसके लोकगीत अब भी मेवाड़ में गाये जाते हैं। गोरा वंश अथवा गोत्र का सूचक है जबकि बादल नाम है। रायमल के समय में गोरा जाट बहुत शक्तिशाली हो चुके थे और चित्तौड़ से चालीस मील के फासले पर इनका राज्य था। इस वंश की जानकारी एक शिलालेख जो स्वयं चित्तौड़ शासक रायमल का खुदवाया हुआ है से पुख्ता होती है जिसके बारे में अौर जानकारी हम उदयपुर के यात्रा वृतांत में लिखेंगे क्योंकि उधर ही वे शासक हुए हैं। (पढें: मेवाड़ क्षेत्र में गोरा जाटों का शासन)
गोरा बादल की गुम्बजों से कुछ ही आगे सड़क के पश्चिम की ओर एक विशाल हवेली के खण्डहर नजर आते हैं। इसको राव रणमल की हवेली कहते हैं। राव रणमल की बहन हंसाबाई से महाराणा लाखा का विवाह हुआ। महाराणा मोकल हँसा बाई से लाखा के पुत्र थे। इन्हीं मोकल ने महासती स्थल के पास स्थित समाधीश्वर मंदिर का भी जीर्णोद्धार करवाया था और इन्हीं के नाम पर उक्त मंदिर को मोकलजी का मंदिर भी कहा जाता है, ऐसा विचार आमो-खास का है।
पद्मिनी महल के तालाब के दक्षिणी किनारे पर एक पुराने महल के खण्डहर हैं, जो खातन रानी के महल कहलाते हैं। कहते हैं कि महाराणा क्षेत्र सिंह ने अपनी रुपवती उपपत्नी खातन रानी के लिए यह महल बनवाया था। इस रानी के किसी जने ने सन् १४३३ में महाराणा मोकल की हत्या कर दी थी। यह वही मोकल थे जिन्होंने समाधीश्वर देवस्थल का पुनरुत्थान करवाया था। यह जानकारी हम पीछे भी दे चुके हैं।
जितने हमने बता दिये केवल उतने नहीं बल्कि और भी बहुत सारे मंदिर चित्तौड़गढ़ के किले में हैं। बल्कि हम तो यह कहेंगे कि वर्णनातीत हैं। सहेजे हुओं के अतिरिक्त भग्नावशेषों के रुप में भी मंदिर हैं। यही नहीं किले में मौजूद रिहायशी गांव में भी मंदिर हैं। सतबीस मंदिर ऐसा जैन मंदिर है जो अपने में सताईस मंदिर समेटे हुए है। कदाचित् सताईस मंदिरों के समूह की वजह से ही इसका यह नाम पड़ा है। इसमें आपको “रणकपुर के जैन मंदिर” की झलक दिखलाई देगी। सतबीस मंदिर, रणकपुर वाले मंदिर से 200 साल पुराना बताया जाता है।
दिन ढलने के उपरांत कुंभा महल में आवाज़ और रोशनियों के समागम से एक “शो” आगंतुकों को दिखाने का इंतजाम भी यहां है। हमने इसे देखा नहीं तो इस बारे में अधिक कुछ कह नहीं सकते। किंतु यह अवश्य कह सकते हैं कि मेवाड़ के प्रतापी राजाओं की गाथा ही इसमें गाई जाती होगी। सौ रुपये की टिकट कटाकर आप मेवाड़ के इतिहास की झलक आप इसमें देख सकते हो। इसके अतिरिक्त और भी अनेकानेक जीर्ण इमारतें, हवेलियाँ, मंदिर, तलैया और देवले हैं। इनमें से बहुत सारे खंडित अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं। इनमें से प्रत्येक का अपना एक अलग इतिहास है। किंतु चूंकि इस वेबसाइट पर हम इतिहास लेखन की अपेक्षा केवल दर्शनीय स्थलों का वर्णन भर करते हैं, अतः इतिहास की गहराइयों में उतरना विषयातीत होगा। बनिस्बत सब कुछ अंकन करने के हम चाहते हैं कि पाठक स्वयं भी धरोहर से रू-ब-रू हों।
चित्तौड़गढ़ भ्रमण हेतु टिप्स व ट्रिक्स…
चूंकि गर्मियों में तापमान झुलसा देने वाला होता है इसलिए चित्तौड़गढ़ भ्रमण का सर्वोत्तम मौसम सर्दियों का है। नवंबर से फरवरी के चार महीने यहां घूमने के लिए सबसे बढिया हैं। मानसून के दिनों में भी आया जा सकता है यदि भीगने से परहेज़ न हो। गर्मियों में जाने से बचना चाहिये।
पगड़ियों, रंग-बिरंगी ओढ़नियों और राजस्थानी घघरियों की दुकानात यहां मौजूद हैं। किंतु दुर्ग परिसर में यह सब चीज़ें केवल फोटो बनवाने के लिए सीमित हैं। राजस्थानी पहनावे का बुत बनकर कितने ही लोग फोटो बनवाते नज़र आ जायेंगे। कुछ महाशय तो टोटली रजवाड़ा लुक पाने के लिए पचास रुपये अतिरिक्त देकर घोड़े और ऊंट पर बैठ कर फोटो बनवाते हैं। बिक्री के लिए नीचे शहर में सब तरह के लिबास की दुकानों की इफरात है। चटोरी जिह्वाओं के लिए भी चित्तौड़गढ़ में तमाम सामान हैं। ठेठ राजस्थानी खाणा तो है ही है सब तरह के सामुद्रिक और दक्षिण हिंदुस्तानी भोजनों की व्यवस्था भी आम है। ठहरने के लिये हर बजट के कमरे चित्तौड़गढ़ शहर में आसानी से मिल जाते हैं।
सवेरे आठ बजे से आप किले और महल में भ्रमण कर सकते हैं। बहुत सी जगहें ऐसी हैं जहाँ समय की पाबंदी नहीं है। वहां तक पहुँचने के लिए मुख्य द्वार के खुलने का इंतज़ार भी नहीं करना पड़ता। अनेकों बावड़ियां, भग्नावशेष और ऐतिहासिक दरवाजे इस कैटेगरी में आते हैं।
वयस्क नागरिकों के लिए बीस रुपये और बच्चों के लिये पंद्रह रुपये प्रवेश शुल्क है। फोटो कैमरा उपयोग करने के लिये बीस रुपये के अतिरिक्त शुल्क की टिकट लगती है। परिसर में तीन-चार जगहों पर टिकटें चेक की जाती हैं, जैसे- कुंभ-महल, पद्मिनी महल आदि। टिकट-घर किले में प्रवेश के राम-पोल द्वार के पास है।
सडक-मार्ग: उदयपुर, जोधपुर, कोटा आदि राजस्थानी शहरों से खूब सारी सरकारी और निजी बसें चित्तौड़गढ़ के लिए दौड़ती फिरती हैं। दिल्ली से भी सीधी बस सेवा उपलब्ध है। साल 2018 की शुरुआत में दिल्ली से चित्तौड़गढ़ का बस किराया करीब साढ़े पांच सौ रुपये है।
रेल-मार्ग: चित्तौड़गढ़ स्टेशन (COR) एक रेलवे जंक्शन है। यह रेलमार्ग द्वारा जयपुर से वाया भीलवाड़ा और अजमेर जुड़ा हुआ है; कोटा से वाया बूंदी और जोधपुर से वाया अजमेर जुड़ा हुआ है। इसके अलावा इंदौर, मऊ, उज्जैन, रतलाम, दिल्ली और मुंबई से भी चित्तौड़गढ़ के लिए ब्राॅड गेज़ की लाईनें हैं। यही क्यों, हैदराबाद, बैंगलुरू, पुणे, मथुरा और कानपुर से भी साप्ताहिक ट्रेनें हैं। एक रेललाइन उदयपुर के मावली के लिए भी चित्तौड़ से जाती है। मावली से नाथद्वारा मात्र तीस किलोमीटर पर है।
वायु-मार्ग: उदयपुर का डबोक हवाईअड्डा चित्तौड़गढ़ का सबसे नजदीकी एयरपोर्ट है। दोनों के बीच दूरी करीब अस्सी किलोमीटर है। हवाईअड्डे से चित्तौड़गढ़ तक टैक्सी सुलभ हैं।चित्तौड़गढ़ भ्रमण की तसवीरें…
↑ (1. समाधीश्वर मंदिर में हाथियों और युद्ध के दृश्य। एक भी कलाकृति को मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा भग्न करने से बख्शा नहीं गया है।)
↑ (2. समाधीश्वर मंदिर में नृतकियों और युद्ध के दृश्य।)
↑ (3. भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा बनाई गई छतरी)
↑ (4. चित्तौड़गढ़ शहर का नजारा)
↑ (5. कुंभा महल से दिखाई देते मीराबाई के महल के अवशेष)
↑ (6. चित्तौड़गढ़ दुर्ग का विहंगम दृश्य। बायें दुर्ग की विशाल दीवार है। ठीक बीच में विजय स्तंभ है। विजय स्तंभ के थोडा बायें में समाधीश्वर मंदिर, उससे नीचे एक जैन मंदिर और नीचे गौमुख कुंड है। विजय स्तंभ के ठीक पीछे की सफेद इमारत फतह-प्रकाश है। फतह-प्रकाश महल के दायें कीर्ति-स्तंभ है। फतह-प्रकाश महल के बायें कुंभा के महल हैं।)
↑ (7. समाधीश्वर मंदिर के बारे में, चित्तौड़गढ़)
↑ (8. विजय स्तंभ के बारे में, चित्तौड़गढ़)
↑ (9. उत्तरी जौहर द्वार। कुंभा के महलों से एक सुरंग गौमुख कुंड तक गई बताते हैं जो इसी द्वार के नीचे से गुजरती है।)
↑ (10. खजुराहो मंदिर के तुलनात्मक बुत)
↑ (11. राणा कुंभा के महल के भग्नावशेष)
↑ (12. राणा कुंभा के महल के भग्नावशेष)
↑ (13. महासती (जौहर स्थल) चित्तौड़गढ़। ठीक सामने की इमारत उत्तरी जौहर द्वार है। इस के उस पार कुंभा के महल और दायें विजय-स्तंभ है।)
↑ (14. मीरा पैलेस चित्तौड़गढ़)
↑ (15. पद्मिनी महल चित्तौड़गढ़)
↑ (16. मीराबाई के महल का अंतःपुर)
↑ (17. इस तसवीर में कई जगहें दिखाई देती हैं। सामने पडा खाली मैदान दीवान-ए-आम का हिस्सा है। बायें राणा कुंभा के महल के खंडहर की इमारत है। इमारत के ठीक बीच में सिंगल-स्टोरी वाला भवन शिव-मंदिर है। खंडहर इमारतों के उस पार त्रिपोलिया गेट और फतह-प्रकाश भवन नजर आते हैं।)
↑ (18. समाधीश्वर मंदिर के गर्भगृह में भगवान शकंर की त्रिमुखी मूर्ति)
↑ (19. समाधीश्वर मंदिर में पत्थर की मूर्तियां)
↑ (20. कला का उत्कृष्ट किंतु भग्न नमूना, समाधीश्वर मंदिर, चित्तौड़गढ़)
↑ (21. त्रिपोलिया द्वार। इसी चित्र में एक मंदिर व विजय-स्तंभ भी दिखाई दे रहा है।)
↑ (22. विजय स्तंभ, चित्तौड़गढ़)
चित्तौड़ के निकट अन्य पर्यटक स्थल…
↑ बूंदी, राजस्थान | ↑ मेनाल, राजस्थान |
- हाडौती-मेवाड़ यात्रा-वृतांत (मुख्य लेख)
- हाड़ौती का ग़रूर — बूंदी
- राजस्थान की नकाबपोश खूबसूरती — मेनाल
- मेवाड़ का गौरव — चित्तौड़गढ
Very beautifully explained the glory of Rajasthan - Chittorgarh and tourist locations with good pictures. thanks a lot.
जवाब देंहटाएंगज़ब बेशर्म आदमी है, चित्तौड़ को जित्रोर सिर्फ तुम जैसे चौपाये गधेड़ बताते हैं। झूठा इतिहास लिख रहा मेवाड़ पर जाट शासन का। कुछ तो शर्म कर यार।
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