प्रथम परवाज़ के यह कुछ क्षण हैं जिन्हें-हमारा तो कहना ही क्या है-पाठकगण भी यात्रा-वृतांत की समाप्ति के उपरांत भुला नहीं सकेंगे। चलिये चल पड़िऐ कुछ कदम मेरे साथ, एक ऐसे सफर पर जो अब से सोलह बरस पुराना है मगर ताज़गी जैसे कल ही की लिऐ हुऐ है। एक नवतरुण की पहली उड़ान का सफ़र, पहले दुस्साहस की बात और घुमक्कड़ी को आहुत घर से निकल भागने की कहानी…
सितंबर 06, 2002 (रात दस बजे) |
गढ़ मिरकपुर, हरियाणा |
"यार पानी से भरे इन खेतों में रुककर गलती कर दी। ये मच्छर तो मेरा कत्ल करने पर उतारु हैं।": खेतों में बने कोठे में। |
सितंबर 07, 2002 (शाम सात बजे) |
दाहा, उत्तर प्रदेश |
"यहीं आसपास एक चौपाल बताई गई है। क्या आप बता सकते हैं कि किस तरफ है? हमें रात काटनी है।": मैं "ये सामने भी एक चौपाल है, पर वहां खाट-चारपाई कुछ नहीं। ऐसी बारिश में, टपकती छत के नीचे कैसे रात गुजारोगे। अपनी साइकिल यहीं अंदर ले आओ।": दाहा गांव में एक परिवार का मुखिया। |
सितंबर 09, 2002 |
ज्वालापुर, उत्तराखंड |
"तुम्हें काम देना हो तो बताओ। नहीं तो हम आगे चलते हैं।": मैं "इतनी अकङ! बातचीत से जाट नजर आते हो।": श्रृद्धानंद चौक के पास, मारुति सर्विस सेंटर का मालिक। |
सितंबर 11, 2002 (सुबह दस बजे) |
ज्वालापुर, उत्तराखंड |
"कैसे पैसे? भाग जाओ। पंद्रह दिन काम करो, तब पैसे मिलेंगे।": ज्वालापुर में निर्माणाधीन इमारत का खंजाची। |
सितंबर 15, 2002 (रात एक बजे) |
मंगोलपुरी पार्क, दिल्ली |
"ऐ, उठो भागो यहाँ से! देखते नहीं ये भगवान का दरबार है। तुम यहाँ नहीं सो सकते।": भजन-कीर्तन और जगराता पार्टी का नुमाइंदा। |
तो साहेबान! देखें हरिद्वार साईकिल यात्रा की खंड-वार कड़ियां नीचे दिये हुये लिंक्स पर। किशोरावस्था में घर से साईकिल पर निकल भागने की कहानी। हरिद्वार साईकिल यात्रा की कड़ियां (भाग एक से भाग आठ)
भाग-1 भाग-2 भाग-3 भाग-4 भाग-5 भाग-6 भाग-7 भाग-8