प्रथम स्वछंद (साईकिल) यात्रा — भाग 'आठ'

सितंबर 15, 2002 (दसवां दिन)

सितंबर 15, 2002 की सुबह हम गढ-मिरकपुर गांव के एक ढाबे पर सोये पड़े थे जब चिड़ियों की चीं-चीं से आंखें खुलीं। रात बढिया कटी। मच्छर नहीं आऐ और 'बादशाह' भी देखने को मिली। सुबह हम मुंह धोकर और शायद चाय भी पीकर निकल लिए। बहालगढ पहुंचे, और वहां से नरेला। जब नरेला से निकलने वाले थे तो राह भटक गये। नरेला से बवाना लौटने में रेल-फाटक से थोड़ा पहले सड़क दो भागों में Y रूप में फटती थी। यह अब भी यथास्थिति ही में है। बवाना के लिए इस पर दायें मुड़ना होता है किंतु हम बायें हो लिऐ। कुछ पीछे यह अनुभव तो हो गया कि गलत सड़क पर चढ़ आये हैं पर फिर भी चलते रहे, यह सोच कर कि कहीं न कहीं तो निकलेंगे ही। किंतु हम किसी तिलिस्म में जैसे उलझे गये कि आसानी से राह ही न मिली। न जाने किन अनदेखे गांवों और खेतों से होकर कहाँ निकले। एक जगह रुककर-पता नहीं कहाँ-हम नहाये और कपड़े भी धोये। वह कोई औद्यौगिक क्षेत्र जान पड़ता था और सरकारी सप्लाई का ढेरों पानी वहां रिसता था। नहा-धो कर और कपड़े सूख जाने पर हम चले। किसी तरह पूछताछ करते-भटकते हम कंझावला के चौक पर पहुंच गये। वहां से बायें मुड़ कर घेवरा तक पहुंच गये।

साईकिल पर दिल्ली भ्रमण

घेवरा में रोहतक-दिल्ली रोड़ मिल जाता है जो दायें हरियाणा में ले जाता है किंतु किसी चुंबकाकर्षण के वशीभूत लोहे की साइकिलें स्वत: ही दिल्ली की ओर मुड़ गईं। तब का दिल्ली भ्रमण आज भी एक मुअम्मा ही बना हुआ है कि बगैर बात हम उधर गये क्यों? यदि वास्तव में हमें दिल्ली ही में घुसना था तो जी.टी रोड़ से ही क्यों न घुसे। पूरा तो ध्यान नहीं पडता मगर हां उस रोज रात हुए हम मंगोलपुरी के किसी इलाके में थे जहाँ यहां-वहां रेहडियों पर मुर्गों के गोश्त टंगे हुए थे। शुरु ही से मैं, और सुंदर भी, दृढ़ शाकाहारी हैं तो नाक-भौं सिकोड़ कर वहां से भाग निकले। किधर से निकले, नहीं मालूम। कहां पहुँचे, नहीं मालूम। जानने की कोशिश भी नहीं की। सडकों पर भटकते हुए आधी रात हुई और जान जवाब देने लगी तो एक पार्क में जा बैठे। थके शरीर ने खुद-ब-खुद स्वयं को जमीन के समानांतर कर लिया। आंखें बोझिल हो आईं। उस दशा में वह हुआ जो न चाहते हुए भी यायावरों को झेलना-औटना पडता ही है। मच्छरों का जबरदस्त हमला। ऐसा जान पडा जैसे सारी दिल्ली के मच्छरों को हमारे ही उपर छोड़ दिया हो। उन रक्त-पिपासुओं का आकार भी किसी मक्खी से कम क्या रहा होगा। तभी कुछ देर बाद ही एक बाशिंदा आया। नजदीक आकर हमें हडकाना चालू कर दिया कि भाग जाओ यहां से। क्या भगवान के दरबार में चोरी करने आये हो? असल में उस पार्क में किसी जागरण-कीर्तन मंडली ने टैंट सजाया हुआ था। और आने वाले भक्त ने सोचा कि हम कोई उचक्के हैं और उनके सामान पर डाका डालने आये हैं। जिरहबाजी के बाद हम वहीं सोये या कहीं और गये इसका ध्यान नहीं पडता।

सितंबर 16, 2002 (ग्यारहवां दिन)

अगले दिन यानि सितंबर 16, 2002 को हमने कहाँ से दिन की शुरुआत की इसकी स्मृति भी अब शेष नहीं है। केवल यह ध्यान है कि दस बजे के आसपास पीरागढी में किसी चाय कंपनी में नौकरी के वास्ते गये थे जिसका इश्तेहार हमने अखबार में उत्तराखण्ड ही में देखा था। कंपनी बंद मिली तो हम वहां से भी निकल गये। दोपहर होने से कुछ पहले बाहरी रिंग रोड पर पीरागढी बस डिपो के पास हम थे। यहाँ से जनकपुरी के डिस्ट्रिक्ट सेंटर गये और वहां से तिलक नगर के बाजार में खामखां इधर-उधर घुमते रहे। तिलक नगर ही में उम्र से कुछ बडे़ एक लडके से मुलाकात हुई। वह ऐसे ही यहां-वहां घूम रहा था। हमें लगा कि वह भी काम की तलाश में है। हम बहुत देर तक उसके साथ ही तिलक नगर के कपड़ा बाजार में भटकते रहे। बातचीत से हमें वह भला लगा। उसने हमें घर लौटने को प्रेरित किया। उसने अपने कुछ मित्रों के उदाहरण हमारे सामने रखे कि कैसे अपने घरों में चोरी करके भागने के बावजूद उनके वालदैन उन्हें लौटा लाये थे, बगैर मारपीट या धमकाने के। हमारे मन में भी लौटने की चाहत पैदा हो रही थी तो इसलिए बारम्बार अपनी सहमतियों का घी उसकी घर-वापसी की सलाह रुपी आग में डाले जा रहा थे ताकि सुंदर भी लौटने को कन्वींश हो जाये। उसके भीतर का तो हम नहीं जानते थे-ना अब ही जानते हैं-पर उपर से वह लौट पडने को रजामंद दिखाई न देता था। फिर भी किन्हीं तरीकों वह लौटा। हरियाणा के ओर वापसी जब शुरू की उस समय का ध्यान तो नहीं आता पर रात के आठ होते-होते हम दिल्ली से निकल आये थे।

हरियाणा में घुमक्कड़ के साथ क्या हुआ?

यह याद पड़ता है कि हरियाणा में घुसते ही सुंदर ने अपने एक सहपाठी को फोन लगाया था। उसी से मालूम लगा कि हमारे पीछे कोहराम उतरा हुआ है। पुलिस और अखबारों को खबर लग चुकी थी। दैनिक जागरण ने तो तीन काॅलम की खबर बनाकर सतस्वीर प्रकाशित की थी। घरवालों की स्वास्थ्य स्थिति का हमें कुछ मालूम न हो सका। दिल्ली की सीमा से बराही पांच मील पर है। कितने ही आराम से चलते हुए बखूबी वक्त पर घर लौटा जा सकता था, मगर कौन मुंह लेकर। हमारी ढुंढ में रुपया तो घरवालों का लगा ही होगा सो तो अलग है, तन-मन की बेहिसाबी तड़प का क्या? बाद में मालूम चला कि करीब तीसियों हजार रुपये से अधिक बिगड़े। मां भी दो तीन रोज अस्पताल में रहीं। उस रात संकोचवश हम घर न लौट सके। रात में शहर-ए-बहादुरगढ की मंडी में पड़े रहे।

सितंबर 17, 2002 (बारहवां दिन)

अगले रोज-तडके ही-गांव के एक नौजवान ने हमें देख लिया। मुझे पकड़ कर गांव लाया गया और घर की ओर ले जाया गया। तालाब के किनारे से गुजरते हुए लोग हिकारत से घूरते थे। उनके दृष्टि-वाण इतने पैने मालूम होते थे कि छाती के आरो-पार भेदे जा रहे थे। उस भंयकर बाणवर्षा के बीच जब घर का द्वार खोल कर हमें अंदर किया गया और मां व दादी जो लिपट कर रोईं कि उस जलजले का सिलसिला कब थमा, नहीं मालूम। मालूम चला कि न जाने किस प्रेरणा के वशीभूत पिताजी और कुछ दूसरे लोग हमारी ढूंढ में हरिद्वार ही की ओर निकले हुए हैं। उस समय की हमारी अपनी दशा का क्या कहना है? पृथ्वी पैरों के नीचे टिकने को तैयार न होती थी। ऐसा अनुभव होता था कि हम जहाँ भी पैर धरते हैं वहीं से वह रिक्त होना चाहती है। जिस जगह पर बैठ जाते हैं वहां की वायु श्वास का रूप धारण नहीं करना चाहती बल्कि धुंआ बन जाना चाहती है। लोगों पर लोग और औरतों पर औरतों के टोले घर की ओर चले आते हैं। माहौल कुछ इस तरह का उन लोगों ने बना दिया है कि जैसे मातम में शरीक़ होने आये हैं। कोई उनमें से हमें आगे से ठीक रहने की सलाह देता, कोई धिक्कारता, कोई-कोई अपशब्द भी कहे देता। ऐसे भी थे जो हमें घर से बिलकुल ही बाहर कर देने का मशविरा घरवालों को देते। कुछ औरतें हमें पुचकारने के लिए अपना हाथ हमारे सिर पर फिरातीं किंतु उनके उंगलियां हमारे बालों में उलझ कर रह जातीं क्योंकि वे किसी नवजात बछड़े के बालों की तरह आपस में गुंथ चुके थे।

घुमक्कड़ को पेश आने वाली वास्तविक कठिनाईयां

वास्तव में किसी भी अन्य बात के मुकाबिले स्वयं को संभालना सर्वाधिक कठिनाई भरा काम है जब आप घर छोड़ कर भागना चाहते हैं अथवा भाग ही जाते हैं। विशेषकर स्वस्थ भोजन और साफ-सुथरा रहन-सहन तो सबसे दुर्लभ बात सिद्ध होती है। उस समय की परिस्थितियों का सारा विवरण सुनाया जाय, यह तो मुनासिब नहीं जान पड़ता किंतु यह कहेंगे की छह मास तक उस घुटन का घनत्व रत्ती भर भी कम न हुआ था। वातावरण कुछ इस तरह का तैयार बन गया अथवा कहें कि बना दिया गया कि जिसमें ब्रह्म-हत्या से भी आगे के किसी गुनाह का मुजरिम हमें बना दिया गया। आज भी लोग हमें वह दिन भूलने नहीं देते हैं। कुछ लोग तो उनमें से ऐसे हैं जो हमारे घर लौटने के कुछ दिन, कुछ महीनों के अंतराल और कुछ वर्ष भर के अंतर पर स्वयं घर से चोरी कर के भागे। ऐसे लोगों में दो-तीन तो ऐसे हैं जो किसी पराई स्त्री को साथ भगाकर ले गऐ। हम ईश्वर का धन्यवाद सदैव इसके लिए करते रहेंगे कि ऐसे कुकर्म में हमें लिप्त न होने दिया, न ऐसे कुविचार ही हमारे मस्तिष्क में पनपने दिये। ऐसे लोगों के लिए जाटभूमि और राजपूताने में प्रचलित एक कहावत का उपयोग उनके मुंह ही पर हम करते रहते हैं- “छाज तो बोलै, पर छलनी भी के बोलै, जिसमें सत्तर छेद”।

यह यात्रा वृतांत है न कि स्वविवरण। अतः अपनी कठिनाइयाँ न कह केवल अर्जित अनुभवों की बातें करना ही लेखक को शोभा देता है। निजी कठिनाइयों को जो कहीं थोड़ा-बहुत उदधृत कर भी दिया गया है तो इसी निमित्त कि वे भावी घुमक्कड़ों के लिए गृहत्याग से उत्पन्‍न होने वाली परिस्थितियों का आईना बन जायें। हे भावी घुमक्कड़ों, यह तय जान लो कि जिस समय घर छोड़ दिया जाता है उसी समय भाग्य भी साथ छोड़ देता है। पीछे स्वयं ही इसको बनाना पड़ता है। केवल यह सोचकर कि जहाँ क़िस्मत ले जाये चला जाउंगा, आत्महत्या से अधिक कुछ नहीं है। इसीलिए यह पहिले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि “प्रथम परवाज़” अतीत की धूल फांकने के लिए नहीं रख छोड़ा जायेगा अपितु आने वाले समय में घर छोड़ने का संकल्प धारण करने वालों के लाभार्थ सर्व-सुपुर्द किया जायेगा। घुमक्कड़ी के लिए गृहत्याग करना अत्यंत ही दुःसाध्य कार्य है। और केवल स्थानों के दर्शन करने भर के लिए आधुनिक तेजतर्रार युग में आवश्यक भी नहीं। केवल स्थानों का दर्शन-भर करते रहने की अपेक्षा घुमक्कड़ी उससे कहीं अधिक आगे की चीज़ है। वास्तव में यह बहुत व्यापक है, बहुत अधिक। कितनी एवं क्या, और यायावरी क्यों व्यापक व आवश्यक है, इसकी बात हम अन्यत्र करेंगे। अभी केवल इतना अवश्य कहेंगे कि घरवालों का प्रेम मोह घुमक्कड़ों के पांवों की सबसे ताकतवर बेड़ी सदा से रही है। इसमें भी, माताओं की ममता की जंजीर की तो कोई चाभी ही नहीं है। अपने आप से यह जंजीर टूटती भी नहीं है बल्कि स्वजोर ही से इसे तोडना पडता है। प्रथम परवाज़ में इसे हम तोड़ न सके बल्कि इसके जोर से खुद ही वापस खिंचे चले आये। भू-भ्रमण का पहिला प्रयास विफल रहा। किंतु विफलता सबक लेकर आती है-ऐसा ज्ञानियों ने कहा है-सो हम जान गये। यायावर की अगली कथाओं में उस सबक का भी वर्णन किया जाता है। तो असफार की किस्सागोई के लिए, आते रहिऐ कुछ कदम मेरे साथ…


हरिद्वार साईकिल यात्रा की कड़ियां (भाग एक से भाग आठ)

भाग-1 भाग-2 भाग-3 भाग-4 भाग-5 भाग-6 भाग-7 भाग-8

11 टिप्पणियाँ

  1. मनजीत भाई निशब्द हूं..

    बाकी आपने शब्दों को बड़ी अच्छी तरह से प्रस्तुत किया

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  2. मनजीत भाई निशब्द हूं..

    बाकी आपने शब्दों को बड़ी अच्छी तरह से प्रस्तुत किया

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  3. आजकल आप कहीं और लिख रहे हैं क्या? ये पोस्ट 2002 की है या बाद की है? http://indiatraveltales.in पर इस ब्लॉग को शामिल किया जाये या नहीं, कृपया बताएं।

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    1. @सुशांत, जी मेरा केवल यही एक ब्लाग है। यात्रा 2002 में करी लेकिन ब्लाग पर 2017 में प्रकाशित हुई। आप शामिल कर सकते हो।

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  4. आपका ब्लॉग बहुत जानकारीपूर्ण, अर्थपूर्ण और महत्वपूर्ण है। एक ट्रैवलर ब्लॉगर होने के नाते, मुझे लगता है कि आपके पास बहुत अच्छा लेखन अर्थ है, जिसके कारण आप बहुत से विवरणों के बारे में बताते हैं| हमारे साथ साझा करने के लिए धन्यवाद|
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