प्रथम स्वछंद (साईकिल) यात्रा — भाग 'छह'

सितंबर 11, 2002 (छठवां दिन)

कल हम सोच कर आये थे कि कम से कम एक दिन और मजदूरी का काम कर सकते हैं जिससे रुपयों का कुछ अधिक इंतजाम हो जाय। लेकिन जल्द ही हमें अनुभव हुआ कि इस तरह से यायावरी की यात्राऐं नहीं कीं जा सकतीं। हम जितना भी कमायेंगे रोज उसका आधे सेे अधिक खर्च भी कर देंगे। हमें कोई दूसरा ही काम खोजना होगा। इसलिए अपना हिसाब कर लेने के लिए हम ठेकेदार के यहां पहुंच गये। ठेकेदार आज भी नहीं आया था। हमें बताया गया कि शायद आज वो देर से आये या यह भी हो सकता है कि आये ही ना।
“यह तो भारी गङबङ हो गई। अब क्या करें?”
“ हां। इंतज़ार भी नहीं कर सकते। वरना तो हम फिर वहीं एक दिन पीछे आ जायेंगे।”
“तो क्या और एक दिन काम करें?”
“नहीं। चल मुंशी के पास चलते हैं।”

पुनः काम की तलाश में यायावर

मुंशी के पास गये तो उसने रुपये देने से साफ मना कर दिया। कहा- वो कुछ नहीं जानता। हमने कहा भी कि हमारी खोल-बांध ठेकेदार से पहले ही हो चुकी है। उन दिनों क्विक-रेफरेंस के लिए मोबाइल फोन सर्वसुलभ नहीं होते थे जो खट् से फोन लगा कर ठेकेदार से बात हो जातीं। हम निवेदन करने पर आ गये मगर मुंशी धूर्त निकला। कहने लगा: "कैसे पैसे? भाग जाओ या पंद्रह दिन काम करो तब पैसे मिलेंगे।" हमें उसकी नीयत पर शक हो गया। बुद्धि बिगड़ गई। साले कोई ख़ैरात मांग रहें हैं क्या? मैेंने मुंशी की गरदन पकड़ ली। झगड़ा होने ही वाला था कि मौके पर ठेकेदार आ पहुंचा। उसने बीच-बचाव किया और हमारे रुपए भी दे दिये। मुंशी को भी गरियाया कि जब इनके मेहनताने के बारे में बता दिया गया था तो टाल क्यों रहे थे।

यह वह युग न था जब थोड़ी पढ़ाई ही से इतना भर तो कमाई हो सके कि भरपूर भ्रमण किया जा सके। हम भ्रमण के एकमेव लक्ष्य को लेकर निकले थे जबकि इसके लिए चित्त-वित्त और मति से अर्धपूरित थे। अब कुछ ऐसा काम करना था कि आय कुछ अधिक हो। हमने फिर से काम ढूंढना आरंभ किया। कितनी ही दुकानों पर गये। और भी कई जगहों पर ट्राई किया, दोपहर ढल जाने तक कितनी ही जगह खंगाल लीं, पर सिफर रहे। ऐसा भी नहीं कि कोई काम देने को तैयार न हुआ हो पर वेतन आवश्यकता से काफी कम रहता। आखिरकार गंग नहर-उस समय उसे ही हम गंगा नदी समझते रहे थे-के किनारे आ बैठे। आसपास कोई नौकरी ढूंढने की गरज से एक दुकानदार के यहां से दो रुपए का एक अखबार खरीदा। अखबारों में बहुतायत में क्लासीफाइड मिलते हैं। परंतु जितने भी विज्ञापन दिखाई दिये वह मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, मेरठ और दिल्ली जैसे शहरों से संबन्धित मिले। विचार हुआ कि प्रायः इस प्रदेश में मजूरी कम ही मिलती है। मजूरी तो तब मिले जब कामगार बनें, यहां तो काम ही का टोटा मालूम पडता है। आवश्यकतानुरुप वेतन तो यहां मिलने से रहा तो हमें अधिक पेई नगरों की ओर रुख़ करना होगा ताकि आगे की यात्राओं के लिए आवश्यकतानुरुप धन जोड़ा जा सके और यहां मजदूर बने न रहें। सम्मति से फैसला हुआ कि मुजफ्फरनगर अथवा दिल्ली की ओर पुनः मुड़ा जाये। तात्कालिक बनी परिस्थितियों के अनुसार हमें यह निर्णय उचित जान पड़ा जो भावी घुमक्कड़ को कभी नहीं लेना चाहिए। जिस पथ पर चल कर आऐं है यदि जल्द उस पर वापस मुड़े तो फिसलते चले जायेंगे। यह फिसलन इतनी तीव्र होगी कि मगजमार हो जायेगा और कुछ भी करना सुझाई न देगा। ऐसे में भरपूर संभावना यह बन सकती है कि कुछ अवांछनीय हो जाय। इसलिए छमाहे से पहले कदम मोड़ने नहीं चाहियें-भले ही सूरत कुछ भी हो-यदि‍ घुमक्कड़ पथ पर आगे बढना हो। निकट भविष्य में गलत सिद्ध ठहरने वाले निर्णय की गठरी शिर बांध कर हम धर्मशाला से अपने झोले लेने चले गये ताकि कपड़े-लत्तों को धोलें। कौन जाने लौटते में कैसे प्रबंध बनें। उस शाम गंग-किनारे धोआमांजी करते हमारे तन-मन उदास थे।

पुनः साईकिल पर दिल्ली की ओर

सितंबर 12, 2002 (सातवां दिन)

अगली प्रातः, जैसा कि पूर्वनिर्धारित था, हम हरिद्वार की ओर नहीं बढे बल्कि दिल्ली की ओर वापस मुड़ लिए। पहली मरतबा निकले, ईंट और रेत की मजदूरी की, तो भी कायम मुकाम न हुये। फख़्त चंद कदम दूर से लौटे। मन उदास सा हो गया। उदासियों में हाथ-पांव ढीले पड़ जाया करते हैं, हमारे तेज चले। और इतने तेज चले कि एक ही दिन में रुड़की पार और मुजफ्फरनगर भी पार कर डाला था। दिन भर कैसे गुजरा वह स्मृति अब शेष नहीं है। पांचवें पहर के ढलते-अब नाम तो याद नहीं पडता-एक गांव से हम गुजर कर रहे थे। किसी ने बताया कि यह त्यागियों का गांव है। हम उस गांव में रात्रि-शरण लेने की मना रहे थे। सुंदर तो एक बुढे के पास दरख़्वास्त लेकर पहुँच भी गया था किंतु मेरे कान में किसी ने कहा कि यहां रुकना उचित नहीं, निकल जाओ, तो हम तुरंत चलते बने। सांझ ढलने को आई जब हम मुजफ्फरनगर में अपनी साइकिलों के साथ खड़े भीग रहे थे। मैं सड़क पर खड़ा था और सुंदर रात गुजारने के वास्ते एक कोठरे का इंस्पेक्शन करने गया हुआ था। लौटा तो रोनी सूरत लेकर लौटा। एक बहुत बडे़ शहर के पास आसरे की तलाश में खड़े हुए हालत दीये तले अंधेरे वाली हो गई। लाखों छतें होंगी उस शहर में मगर हमें एक भी मयस्सर नहीं।

जब भरे मुजफ्फरनगर में ठिकाना न मिला तो हम खेतों की ओर भागे। क्या करते? और एक बार फिर खेतों ने हमें नाउम्मीद नहीं किया। एक ढाबा मिला। बिलकुल बंद होने के कगार पर। भूखों को यहां रोटियां मिल गईं। कैसी थीं यह तो नहीं बतायेंगे पर सस्ती थीं, हमारी जेब के अनुकूल। यह एक निर्जन सी जगह थी। गरजते बादलों, रह-रह कर चमकती बिजलियों और धुआँधार बरसात ने इसे और भी सुनसान बना दिया था। रात की चादर फैलनी शुरु ही हुई थी लेकिन सड़क पर शायद ही कोई आता जाता दिखाई देता था। कभी कभार ही कोई इक्का-दुक्का मोटर आती और उसकी रोशनी में सड़क की तन्हाई अनुभव होती। उस समय उस जगह लिए हम अपने मन में अजीब सी मनहूसियत महसूस करते थे। हमने वहां पर रुकने की एवज़ में रोटियां खाईं थीं पर बाद में वहां एक पल भी रुकना दमघोंटू लगता था। मगर हम कहाँ जा सकते थे। झमाझम मूसलाधार बरसात अनवरत जारी थी। रात गहराने लगी तो लेटने का मन हुआ। आखिर पूरा दिन ताबङतोङ साइकिल चलाई थी। अतिरिक्त खाट नहीं थीं इसलिए ढाबे के कारिंदों ने कहा कि उपर चले जाओ सोने के लिए। एक जना हमारे आगे आगे हो लिया दीया लेकर कि अंधेरे में राह दिखा सके। लोहे का एक जीना जो उपर छत से सटकर खत्म हो रहा था, वह उस पर चढने लगा। ऐसी सीढ़ी हमने अपने जीवन में पहले कभी न देखी थी। वह कहीं भी न जाती मालूम होती थी सिवाय छत से जा भिड़ने के। फिर भी हम उसपर जा चढ़े। ढाबे वाले ने उपर छत को धक्का दिया और उसमें लोहे की एक खिड़की खुल गई। इसके पार हमने स्वयं को एक छोटे से सीलन भरे कमरे में पाया। यहाँ एक टुटी खाट पडी थी जिस पर हमें रात गुजारनी थी। रात आती है तो कटती भी है। दो फीट चौड़ी खाट पर हमारी भी कटी। रात भर सुंदर अपनी पेटी का पट्टा बनाकर मुक्के में बांधे पडा रहा।


हरिद्वार साईकिल यात्रा की कड़ियां (भाग एक से भाग आठ)

भाग-1 भाग-2 भाग-3 भाग-4 भाग-5 भाग-6 भाग-7 भाग-8

5 टिप्पणियाँ

  1. त्यागियों के गांव से आप का क्या तात्पर्य है। मैं समझा नहीं।

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    1. माने, त्यागी गोत्रोत्पनोह्म लोगों की अधिकता वाला गांव।

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  2. आपकी लेखनी और भाषा शैली कमाल की है, खासकर साईकिल यात्रा वाली पोस्टों में

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    1. @Prakash singh bora, आपका धन्यवाद। इस कमेंट के मायने यह है कि आपने अन्य यात्राऐं भी देखीं-पढीं।

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