“हवाई जहाज से!”- सुंदर ने कहा - “नहीं यार, बहुत खर्चा हो जायेगा।”
हमने कहा कि यह तजुरबा भी कभी कर के देखना चाहिए। यकीन मानो कि पहली पहल हवाई यात्रा बडी उत्तेजना भरी होती है। इसका अपना ही एक अलग मजा है। पहला हवाई सफर अपने आप में हासिल-ए-मंजिल है। और कुछेक चिकनी-चुपड़ी लगाकर उन दोनों को शीशे में हमने उतार लिया। फिर शुरु हुई एक सस्ती सी उड़ान की तलाश। आजकल कितनी सुविधाएं हो गई हैं। बस इंटरनेट युक्त एक मोबाइल फोन आपके हाथ में हो तो कुछ भी जानकारी ढुंढ निकालना सरल है। दिल्ली से जयपुर किफ़ायती हवाई सफर के मुफीद निकला। एक सहस्र रुपये में टिकट मिल जा रही थी। इससे सस्ती हवाई यात्रा और क्या होगी? इससे दोगुनी रकम तो टैक्सी वाला मांग लेता। तो, दो दिन में टिकट बुक कर लेने का जिम्मा लेकर हम वहां से उठे।
घर लौटे दो घंटे भी नहीं हुए थे कि खबर मिली, पहाड़ों पर बर्फबारी चालू हो गई थी। अब किसने जयपुर जाना था? जितने रुपये में जयपुर की हवाई यात्रा निपटती उतनों में तो अपनी गाड़ी में बर्फबारी का मजा लूट आयेंगे। और फख्त जयपुर घूमने भी क्या जायें? साथ कुछ और जुड़े तो बात बढ़े। और जितनी शीघ्रता से हवाई यात्रा का प्लान बना था उसी तेजी से रद्द हो गया। अगले दिन हमने घोषणा कर दी कि जयपुर की बजाय पहाड़ पर चलेंगे। घोषणा का पुरजोर विरोध हुआ सुंदर के द्वारा। परंतु कार और जहाज के नफे-नुकसान के गणित में उलझाकर हमने उसे हिमालय के लिए मनाया। हिमपात का मजा लूटने का चोर तो उसके मन में भी था ही। आखिरकार मनाली-रोहतांग का फाइनल हुआ। जनवरी 2018 के नौवें दिन को चलने की ठहर गई। इधर कुछ दिन बाद मैदानों में ठंड बहुत बढ़ गई तो विचार आया कि यहीं हाड़ कंपकंपा रहे हैं तो बर्फ से लकदक पहाड़ों में क्या हाल होगा। यदि अपनी गाड़ी ही लेकर चलना है तो सर्दियों में हिमालय ही क्यों? वैसे भी बर्फ पर कार चलाने में बड़ी दिक्कत पेश पड़ती है। और धीरे-धीरे सुई पुनः राजस्थान की ओर फिर से घूम गई। राजस्थान में कहाँ? बहुत सी जगहों और किलों की छनाई के बाद चित्तौड़गढ़ जंच गया। साथ में पक्के हुये - तारागढ़ किला, कोटा एवं कुछ और स्थान। एक तरह से हाड़ौती-मेवाड़ परिक्रमा हो जायेगी। भावी सहयात्रियों को नवगढित प्लान से ज्यों ही अवगत कराया त्यों ही सिरफिरे की उपाधि से हमें नवाज़ा गया। इसके बावजूद भी इस प्लान पर भी अंतिम रुप से हम टिके नहीं, जब-बाद में-कोटा को भी लिस्ट से निकाल दिया। यह कोई पहली दफे न था कि जब यात्रा कार्यक्रमों को हमारी वजह से इतना बिगड़ना पड़ा हो। यह होता रहता है और अपने सहयात्री अब इसकी आदत पड़ चुके हैं।
मेवाड़ की ओर
आखिरकार नौ जनवरी की रात नौ बजे हम और रविंद्र, सुंदर को उसकी नौकरी से छुट्टी ले, निकले। सफर की हमसफर थी अपनी सदाबहार आल्टो 800। यात्रा का पहला पडाव निर्धारित हुआ पौने पांच सौ किलोमीटर दूर बूंदी का तारागढ़ किला। राह तय हुई- झज्जर, रेवाड़ी, जयपुर, टोंक होते हुए सुबह तक बूंदी, पीछे चित्तौड़गढ़ वाया बिजौलिया व मेनाल। इस पूरे रास्ते मैं आश्वस्त था कि सड़कें तो खूब बढिया ही मिलने वालीं थीं। हालांकि जयपुर से आगे मैं कम ही गया था, हाड़ौती, मेवाड़ की ओर तो कभी नहीं। फिर भी पूर्वानुमान अनुसार सड़कों की हालत बहुत बढि़या मिली। आप बखूबी तीन अंकों की रफ्तार पर अपनी मोटर को वहां दौड़ा सकते हैं। लेकिन पूरी यात्रा मे मेरी रफ्तार तो सत्तर से उपर शायद ही कहीं गई हो। केवल एक चीज जो अखरी वो थे लगभग हर तीस-चालीस मील पर जमे हुए टोल बैरियर। एक और चीज़ जो अब अधिकाधिक बढ़ावे में ध्यान में आने लगी है वह है टोल-केंद्रों पर लूट मचाता हिजड़ा-गैंग। ऐसा नजर आता है जैसे पुलिस वाले भी लाचार हैं इस गैंग के आगे। कदाचित् यह इनकी संगठन शक्ति सह निर्लज्जपने ही का परिणाम है जो लगभग हर कोई इनसे हाथ जोड़ लेता है और इनकी खसोट जारी रहती है। मनोहरपुर टोल प्लाज़ा पर पहले एक ट्रक को जबरन इन्होंने रुकवाया, फिर माल प्राप्त किया, तदोपरांत उसी ट्रक में पूरे अधिकार से पूरा गैंग जा घुसा और चले गये। हमारे साथ-साथ सैंकड़ों लोग और पुलिस पी.सी.आर वाले सिवाय तमाशबीन बने रहने के कुछ न कर सके। अब तो पूर्णतः स्वस्थ-संपूर्ण स्त्रियाँ, और पुरुष भी, इनमें मिल कर मुफ़्त कमाई में जुटने लगे हैं। मनोहरपुर के टोल बूथ पर चाय के दो-दो प्यालों के बहाने आधा घंटा विश्राम लेकर अपनी मोटर को हमने अग्रपथ पर डाला। मौज से चलते हुए अर्ध-रात्रि के उपरांत जयपुर पहुंचे। जयपुर में घुसने से पहिले गाड़ियों को रोक-रोक कर आने जाने वालों के नाम-पते, फोन नंबर, गंतव्य यहाँ तक कि उद्देश्य तक पुलिस वाले नोट कर रहे थे। इस तरह की तफ्तीश क्यों? मालूम चला कि किन्हीं डी.ओ. ब्रज यादव के आदेशानुसार ऐसा हो रहा था। बिलकुल खाली सड़कों और चौड़े चौराहों से होते हमने आधा ही घंटे में जयपुर लांघ लिया।
जयपुर पार होने के बाद अगला लक्ष्य सूर्योदय तक बूंदी के तारागढ़ किले तक पहुंचने का था। सड़क का क्या कहना है- दिल्ली-जयपुर के राष्ट्रीय राजमार्ग से भी बेहतर। समय का सटीक ध्यान नहीं पड़ता। किंतु ब्रह्म मुहूर्त के आसपास टोंक पहुँचे। ग्यारहवीं सदी की ठीक शुरुआत में “खोजा” गोत्रीय जाटों द्वारा स्थापित व शासित इस प्रदेश की महिमा कोई कम भारी नहीं है। जाट यहां मुगलों तक के चालान काट लिया करते थे। आज तक महावीर जाट अधिपतियों के निशान टोंक की भूमि पर अस्तित्व में हैं। अवश्य और शीघ्र ही हम उनके दर्शन करेंगे। किंतु भागमभाग में नहीं बल्कि फुरसत से इस ऐतिहासिक नगर को हम बडे इत्मिनान से घुमने आयेंगे, सो तत्काल न रुके (पढें: टोंक पर जाट शासन का इतिहास)। नगर टोंक पार हो एक ढाबे पर चाय के वास्ते रुके। वहां अलाव जला हुआ था तो रविंद्र ने थोड़ी सिंकाई ली और घड़ी-भर को मैंने खटिया। समय का अंदाजा बता ही चुके हैं। रात-भर मोटरों को चलाने वालों के सो पड़ने का यही समय सिद्ध ठहरता है। पलकें आपस में लगभग गंठ ही चुकीं थीं कि खटिया पर खड़खड़ाहट हुई- “चाय लीजौ।” कुढ़ कर हम उठे, सौंफ-अदरक मारी चाय पी और आगे चले। दो-ढाई घंटे बाद जब कालिमा, नीलिमा में ढलने लगी तो बूंदी की सुरंग के मुहाने पर हम खड़े थे। सुंदर और मैंने हाथ मिलाकर एक फोटो बनवाया और किले की ओर बढ़े। वास्तव में बूंदी की सुरंग बडा़ ही बढिया नजारा पेश करती है खासकर सूर्योदय से पूर्व। ऐसी ही एक सुरंग माउंट आबू के मार्ग में भी है।
↑ (बूंदी की सुरंग का दृश्य)
हाड़ौती का गढ - बूंदी
बूंदी में हमने तारागढ़ नामक किले की सैर करनी थी। इसके अतिरिक्त और भी कुछ अन्य दर्शनीय स्थलों का भ्रमण करना था। पूर्व निर्धारित प्रोग्रामानुसार हम वहां सूर्योदय के समय तक पहुंच गये। किले का प्रवेश द्वार अभी बंद था तो आंखों से नींद निकालने की कोशिश में पानी के छींटे मारने लगे। एक घंटा जाया जाने के बाद ही किले में प्रवेश हो सका। देसियों में कम और विदेशियों में अधिक लोकप्रिय बूंदी का किला वाक़ई अद्वितीय है। दोपहर से कुछ पहले तक किले की अट्टालिकाओं को निहारते घुमते रहे। पश्चात आगे के सफर पर निकले। बूंदी भ्रमण का यात्रा वृतांत निचले लिंक पर बयान किया जाता है।
कोटा नहीं जाने का मन तो हम पहिले ही से बना लाये थे। समय की उपलब्धता उसकी इजाज़त देती ही न थी। इससे सुंदर का नाराज़ ठहरना लाजिमी भी था। चित्तौड़गढ़ से भी अधिक वह कोटा को तौलकर इस यात्रा पर हमारे साथ आया था। किंतु यह विश्वास दिला कि उधर को जाना हाल उपयुक्त नहीं है, हम दूसरे राह से चित्तौड़गढ़ को चले। यह दूसरा मार्ग एक बदतर सड़क से होकर जाता है। आमतौर पर भारतीय घुमक्कड़ बूंदी का रुख़ करते नहीं। छनकर जो आते भी हैं वो कोटा होकर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग ही पर चलते हैं। आखिर कौन इस महाटुटी सड़क पर अपनी अंतड़ियां रगड़वाने आयेगा, ऊपर से धूल-धक्कड की फुल आॅफरिंग। हम भी इस पर चलते उकता गये थे। सहयात्री तो दे ताने मेरी जान लेना चाहते थे। बूंदी से बिजौलिया के सफर में मुख्य मार्ग की अपेक्षा इस सड़क पर चल जो छूटा - वो था कोटा-दर्शन और पैंतीस मील का अतिरिक्त सफर। जो मिला, वह था - मात्र तीस मील का सफर, पर्यटकों से बिलकुल अनछुआ राजस्थान का अलहदा नजारा और भीमलात वाटरफाॅल। यह सड़क “नीम का खेड़ा” के पास कोटा-चित्तौड़गढ़ सिंगल रेल लाइन को पार करती है। जैसे ही फाटक पार होता है आप अपनी आंखों के गोलकों को सामान्य से दोगुना खुला पाते हैं। क्यों? क्योंकि आपकी आंखों के सामने मीलों तक फैला खुला नजारा होता है। नग्न आंखें उस नजारे के अंत तक देख ही नहीं सकतीं क्योंकि उनमें इतनी दूरी तक दृश्यता की प्रकृति-प्रदत्त शक्ति ही नहीं है। पूरा पहाड़-जिस पर आप खड़े हैं-प्रतीत होता है जैसे अभी अभी धरती फोड़ कर बाहर निकला हो। इसके अतिरिक्त रेल-पटरी ही मोहित कर लेती है जो पहाड़ की ढलान पर जाने कैसे टिक गई मालूम होती है जोकि रपटती नहीं। रेलयात्रा सदैव ही से हमें बेइंतहा ऊबाऊ जान पड़ती हैं। सिवाय आराम से पसरे रहने के किसी रेलयात्रा का क्या गुणगायन किया जा सकता है? परंतु इस ट्रैक ने-कुछ अन्य चुनिंदा की भांति-हमे इतना मोहित कर लिया कि अगली बार जो इस ओर आया तो रेल ही पर आना होगा। आह! मैं उस कमाल दृश्य में ट्रेन को उन पटरियों पर गुजरते न देख सका।
↑ (“नीम का खेड़ा” के पास कोटा-चित्तौड़गढ़ रेल फाटक के नजदीक दूर तक फैला खुला दृश्य)
बिजौलिया की ओर
कुछ देर वहां बिता-जब तक कि सहयात्रियों ने कुछ जोडी़ बीडियां न फूंक लीं-हम चले। भीमलात झरना इस रेल-फाटक से करीब दस मील फासले पर होगा जबकि वहां से चलकर कुछ देर बाद एक सड़क दाईं ओर को झरने के लिए अलग हो जाती है। मुझे पक्का विश्वास है कि मानसून के अतिरिक्त किंचित ही जल वहां मिलता होगा। इस पश्चात जैसे-जैसे बिजौलिया की ओर-जहां से चित्तौड़गढ़ जाने के लिये राष्ट्रीय राजमार्ग 27 मिलता है-बढते जाते हैं खनिक क्रियाकलापों में उत्तरोत्तर वृद्धि होती मिलती हैं। बिजौलिया वैसे तो एक खनिक शहर है लेकिन वास्तव में इसका संक्रमण क्षेत्र बडा़ विशाल है। इतना विशाल की राजस्थान के बूंदी, भीलवाड़ा और चित्तौड़गढ़ जिले, यहाँ तक कि मध्य-प्रदेश के मंदसौर जिला के भाग भी, इसके अंतर्गत आते हैं। महाबली जाटों का शासन इस क्षेत्र पर भी पूर्व में रह चुका है। जाट महाराजा “नागावलोक” की राजधानी बिजौलिया ही के निकट स्थापित थी। इस शासन इतिहास का वर्णन जाटस्थान पर प्रकाशित होने के लिए हम रख छोड़ते हैं। इस क्षेत्र में बलुआ पत्थर की खान खुदाई की अर्ध-सैंकड़ा इकाइयां तो बीसवीं सदी ही के अंत तक अस्तित्व में थीं, उत्तरोत्तर बढीं ही होंगी। राजस्थान के खनन माफिया से कौन अनभिज्ञ है? सारा राजस्थान-समेत अरावली- इन्होंने खोद डाला है। आप भर-राजस्थान को टटोल डालिऐ, शायद ही कोई इलाका खैरियत से मिलेगा। बिजौलिया क्षेत्र में तो हालात इतने खराब हैं कि बीसवीं सदी पौनी बीतते तक जो जमीन ढाई सौ वर्ग किलोमीटर से भी अधिक क्षेत्र में सौ फीसद घनत्व के साथ वनाच्छादित थी, मात्र बीस वर्षोपरांत सवा सौ वर्ग किलोमीटर रह गई। इसमें भी पूर्ण घनत्व वाला वनाच्छादित क्षेत्रफल केवल सताईस वर्ग किलोमीटर रह गया।
इतनी अवनति !!! और यह अवनति केवल कुदरती नेअमतों का नाश करती हो, ऐसी बात नहीं है। बिजौलिया में यदि संरक्षित खुदाई अभियान चलाया जाये तो इतिहास को उघाड़ते कितने ही शिलालेख अस्तित्व में आ जायेंगे। कुछ शिलालेख इस क्षेत्र में प्राप्त भी हुए हैं।जाहिर है इक्कीसवीं सदी में यह दुर्दशा बढी ही होगी। इस दुर्दशा का सर्वाधिक शिकार वृक्ष और स्थानीय किसान हुए हैं। पानी गहरे चला गया तो जबरन किसानों को पत्थर-खानों में काम करने को मजबूर होना पड़ा। डस्ट और निलंबित कणों की वातावरण में बढती हुई बाढ़ उन्हें दमे, टी.बी, सिलिकोसिस और शोर-पूरित जिस जहन्नुम की ओर धकेल रही है वहां से उनका पुनरुद्धार किस तरह से होगा, यह हम-खुद न कह- सुधी जनों की अक़्ल पर छोड़ देते हैं। काश हो जाने के उनके मंगल की कामना कर हम अपने यात्रा-वृतांत पर अग्रसर होते हैं।
राजस्ठान की नकाबपोश खूबसूरती - मेनाल
अपनी कार पर सवार हम बिजौलिया से राष्ट्रीय राजमार्ग 27 पर चढ़ मेनाल नामक जगह के कुछ दूर पहिले एक ढाबे तक पहुंचे। कल रात दो रोटियों के गुजर के साथ हम घर से निकले थे और यहां तक अगले दिन की दोपहरी निकल गई। तो दाल-रोटी की बोल हम वहीं कुर्सियों पर बैठ गये। नहीं मालूम कि उस समय प्राप्त भोजन का वास्तविक स्वाद कैसा था, किंतु यह है कि उतने तेल से भरी दाल अपनी स्मृति में कहीं ही शायद हमने खाई हो। सटासट पांच तंदूरी रोटियां निपटा हम एक तरफ हुए। मन किया कि सो जाउं। खाट पर लेट भी लगाई किंतु यकायक जाने क्या मन में आया कि तुरंत आगे को निकला जाये। और अगले ही मिनट हम कार में पुनः सवार थे। मील-भर में मेनाल पहुंच गये। यहां हमें मयनाल महादेव और मेनाल झरना देखना था। यह बड़ी ही दिलकश जगह है, सुकूनबख्श और खूबसूरत। मेनाल भ्रमण का यात्रा विवरण नीचे लिंक पर प्रकाशित किया जाता है।
एक पहर भर मेनाल मंदिर और झरने की सुषमा का आनंद लेकर हम अपनी मुख्य और अंतिम मंजिल-चित्तौड़गढ़-की ओर बढे। मेवाड़ की भूतपूर्व राजधानी को देखने जा रहें हैं तो क्यों न मेवाड़ के एक संत का जिक्र हम कर दें। मेवाड़ की वीरभूमि पर बख्तावरसिंह नाम से एक जाट बडे प्रसिद्ध संत हो गये हैं। मेवाड़ के लोकगीत आज भी उनकी बहादुरी की तसदीक़ किये देते हैं। ये गौओं के बडे रक्षक हुए हैं। दुर्दांत खिलज़ी जब चित्तौड़ पर आक्रमण के लिए निकला तो बख्तावर जी के इलाके से होकर गुजर किया। उसके पिट्ठुओं नें इनसे गौ-वध को गाय की मांग की। भला वह गौरक्षक ऐसे कैसे गऊ दे देता। जाहिर है लड़ाई हुई। साधु स्वभाव के भले मनुष्य ने कई आक्रांताओं की बलि अकेले लड़ ले ली किंतु अंततः गौरक्षा में शहीद हुए। अधिक जानने के इच्छुक पाठकगण बख्तावरसिंह पर रचित गीत-काव्य “शीतल भजनावली” पढें।
लगातार दिन-रात जागने और ड्राइविंग के कारण आंखें दुखने लगीं किंतु मात्र साठ मील में फाइनल डेस्टिनेशन की पकड़ के लोभ ने चलायमान रखा। पता नहीं हमें ही यह निजी अनुभव हुआ अथवा कि यह वास्तविकता है, मेनाल के उपरांत जैसे जैसे चित्तौड़ की ओर बढ़ते जाते हैं, एक अलग सी दुनिया से साक्षात्कार हुआ हम पाते हैं। उस दुनिया में एक अलग सी शांति अनुभव होती है। अधिक बतलाने की नहीं अपितु स्वानुभव लेने की यह बात है। दिन ढले हम चित्तौड़गढ़ पहुंचे। दो-तीन ठौर छानने के उपरांत लक्ष्मी लाॅज भाया और ढेर हो गये। हा-हा-हा, छह सैंकडा किलोमीटर निरंतर ड्राइविंग के बाद बिस्तर पर हल्के-हल्के कंपन-भूकंप का जो आनंद है, बहुत दिनों बाद उसे फिर अनुभव करते हम सोये।
मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़गढ़ में
जैसा कि पूर्वनिर्धारित था, आज हमें चित्तौड़गढ़ दुर्ग की सैर करनी थी। खूब थककर सोने के बावजूद छह घंटे ही में आंख खुल गईं। फिर भी अलसाये पड़ रहे-घंटे भर तक। तदंतर एक-एक कर तैयार हुए, एक-एक खराब चाय पी व निकले। सूर्योदय दुर्ग की तलहटी में ही हुआ। जब तक टिकट खिड़की पर पहुंचे तब तक तो खूब लोग आ गये थे किले में। पूरे दुर्ग में गाईड लोगों की बड़ी मारामारी है। कुछ वाक़ये स्मृति में आते हैं इन गाईडों के, दो जिनमें से बताते चलते हैं। कुंभा महल की सैर के पश्चात जब हम चित्तौड़गढ़ के ऐतिहासिक स्थल देखने के लिए आगे जा रहे थे तब हमारी मोटर की रहगुज़र में एक पुलिस वाला आया। हम धीरे-धीरे ही चल रहे थे तो इसलिए उन जनाब की आवाज़ स्पष्ट कानों में पड़ी जब उन्होंने कहा- “ब्हादरगढ”। चूंकि बहादुरगढ़ हमारा गृहनगर है तो चौंक कर रुक जाना लाजिमी ठहरा। हम यह तो समझ ही गये थे कि अवश्य ही यह बहादुरगढ़ के नजदीक का बाशिंदा है वरना केवल कार के नंबर को देख कौन चार सौ मील दूर आपके शहर का नाम लेगा। तुरंत गाड़ी रोककर हमने राम-राम की और पूछा कि भाईसाब आप कहाँ के रहने वाले हो?
जवाब मिला - गढ़ी।
हमने फिर पूछा - कौन सी? सांपला वाली?
उत्तर आया - नहीं, सिसाना वाली।
फिर हम कहाँ गाड़ी में बैठे रहने वाले थे! तुरंत मोटर को किनारे लगा कर उतरे और पुलिस वाले से मिलने जा पहुंचे। हमने हंसते हुये कहा कि बताईये अब आपको क्या कहूँ? मामा कहूं या भाई कहूँ? वो बोले कि कैसे? हमने कहा कि सिसाना गढ़ी हमारा ननिहाल है। और फिर सब हंसने लगे। उन्होंने बहुत कहा कि कम-स-कम चाय तो पी लीजिए। परंतु हमने वह सब उन पर उधार छोड़ दिया। फिर उन्होंने एक गाईड भी-जो उन्हीं की मोटरसाइकिल पर बैठा था-हमारे साथ यह कहकर करना चाहा कि वो अच्छे से हमें पूरे दुर्ग की सैर करा देगा। किंतु यह जानकर हमने नम्रतापूर्वक इनकार कर दिया कि बेकार ही में बेचारे गाईड की दिहाड़ी मारी जायेगी। कुछ देर बाद हम उनसे विदा ले आगे बढ़े।
गाईडों का दूसरा वाकया हमें याद आता है जब अपनी मोटर को पद्मिनी महल के पास छोड़कर पैदल ही डियर-पार्क की ओर चले गये थे। करीब दो मील के इस पैदल सफर में कितनी ही मोटरसाइकिलें, तीन-तीन व चार-चार मुस्टंडों से लदी हुईं, सनसनाती हमारी बगल से निकलीं। दो-चार मोटरसाइकिलें गुजरने पर हमने यह गौर किया कि ये तो वही लड़के हैं जो सुबह में गाईड बन कर अपनी सेवाएं देने के लिए आगंतुकों के पीछे पड़े रहते हैं। किंतु दोपहर बाद अब ये सब कहाँ जा रहें हैं, वो भी इस तरह मोटरसाइकिलों को दनदनाते हुए? और जैसा विचार हमने किया था वही संदेह शतः निकला। पद्मिनी महल से बहुत आगे, कीकरों के झुरमुटों में, एक जलाशय के किनारे वे लोग दारूबाजी में मस्त हो रखे थे। इतिहास का इन्हें कुछ मालूम होता नहीं और ऐसे ही मनगढ़ंत किस्से सुना-सुना कर गाईड बने फिरते हैं। जितना कमाते हैं सब यहीं उड़ा कर रात में घर लौट जाते हैं। तकरीबन सभी नये लड़के हैं और गाईडगिरी में लगे पड़े हैं बनिस्बत कुछ ढंग का काम करने के। हमारा निष्कर्ष यह है कि सही जानकार गाईड चित्तौड़गढ़ में कम हैं और ऐसे कामचोर अधिक। बाक़ी बातों की जानकारी और यात्रा वृतांत को आगे बढाने के लिए चित्तौड़गढ़ का सैरनामा नीचे लिंक पर दिये देते हैं।
सारा दिन चित्तौड़गढ़ के किले के नाम कर अंततः चार बजे सायंकाल हम वापिस लौटे। थकान बहुत अनुभव होती थी और जी करता था अभी सो जायें। और इस प्रकार सवेरे ठौर बुक रखने की अपनी अक़्लमंदी पर बडा गर्व हम अनुभव किये। किंतु वास्तव में वह थकान न थी बल्कि वह अल्पकालिक-आलस्य था जो हमें भोजनोपरांत हो जाया करता है। पता नहीं कितनों को यह होता है किंतु हमारे केस में यह इतना वेगवान होता है कि पेटभर खाने के बाद जब तक घंटा-भर पसर न लें बुद्धि भंट किये रखता है। अलसाये रहने के चक्कर में हमारा वह तमाशा देखना भी बाक़ी रह गया जो चित्तौड़ के दुर्ग में रोशनी और स्वर-लहरियों के सम्मिश्रण से दिखाया जाता है। और वास्तव ही में जब पौन घंटा पड़ हमने खुमारी उतारी तो इरादा चल देने का होने लगा। तीनों की थोड़ी बातचीत के उपरांत चित्तौड़गढ़ तुरंत छोड़ देना मुकर्रर ठहरा। तय हुआ कि रात में सफर कर अलसुबह पुष्कर पहुँचें और पुष्कर की सैरोपरांत दोपहर पीछे घर को रवाना हों। आज का जितना समय दिन शेष था वह चित्तौड़गढ़ के नजदीक एक अन्य स्थान हेतू आरक्षित था किंतु अपर्याप्त था सो एक अन्य अनप्लांड डेस्टिनेशन-पुष्कर के सफर-की ओर मोड़ दिया। सुंदर की बात न मान यहाँ चार सौ रुपये अतिरिक्त खर्चा हुए जबकि लाॅज वाले का हिसाब ठीक किया। बंदे ने दिन-भर कमरा बंद रखने के इतने रुपये अतिरिक्त काट लिए। हम क्या कहें, जो कहा सो सुंदर ने कहा, कमरा तो हमीं ने बंद रख छुड़वाया था।
वापस घर की ओर
दिन ढले छह बजे हम चित्तौड़गढ़ से वापसी रवाना हुये। चूंकि पुष्कर की ठहरी थी तो आराम से कार चली, किंतु कहना होगा कि सड़क का भी योगदान इसमें रहा। हां, उस टूटे हुए लंबे टोल रोड़ पर अपनी प्रिय कार को हम साठ से उपर दौड़ा भी न सके। सुंदर भाई पीछे सोते रहे और अगले दोनों ने पुष्कर को भी छोड़ डालने की स्कीम कर ली। हा-हा-हा-हा भाई को पता भी तब चला जबकि बहुत आगे निकल आये। एक किस्सा और सुनाते हैं। वह यूं है- ख्याल नहीं पड़ता कि ऐन वह कौन सी जगह थी, किंतु भीलवाड़ा के बाद कोई टोल बैरियर था यह खूब याद आता है। हमारी मोटर टोल की पंक्ति में खड़ी हुई थी कि सहसा खिड़की पर दो उंगलियों ने खटका किया। हमने कांच उतार कर बात पूछी। परंतु यह क्या? सामने वाला सीधे उलाहना देने लगा। हमारी तो बुद्धि ही में न आया कि बात क्या है? वह एक निजी बस का कंडक्टर था और कहता जाता था कि हमें गाड़ी चलानी नहीं आती और कार सड़क पर चल कहाँ रही है, इस तक का इल्म हमें नहीं है। सौ सहस्र मील से ऊपर सड़कों का सफर अपनी ड्राइविंग से करने वाले इन पंक्तियों के लेखक ने ऐसा गपोड़ा पहले तो कहीं सुना नहीं। हमने उलाहने की वजह पूछी तो उत्तर आया कि “पास-बाई” कायदे से हम नहीं दे रहे। हम अधिक क्या कहते सिवाय यह के कि भाई कोई बात नहीं, जाओ तुम, हम ख्याल रखेंगे। दो दफे शांति से टालने के बावजूद जब उस नौसिखिए के बोल नहीं थमे तो जाट को वही तरीके से पेश आना पड़ा जिसकी वजह से उसकी कौम को खामख्वाह ही बुराई सुननी पड़ती है। फिर करीब अर्ध-सैंकड़ा मील बाद अर्ध-रात्रि में एक ढाबे पर छके। जठराग्नि बुझ जाये तो काम किसे सूझता है। पेटभर खाने के बाद दो घंटे नींद निकाली और पुनः सड़क पर। ब्रह्म मुहूर्त में जयपुर पहुंचे। बिना रुके पार भी हो गये। नभमंडल की कालिमा मिटते ही सड़क किनारे एक ढाबे पर रुकना हुआ। एक ने पेट खाली किया तो अन्य दो ने अपने-अपनों में गर्मागर्म चाय उंड़ेली। सूर्यनारायण के निकलते समय शाहपुरा के आसपास कहीं थे। कोटपुतली पहुंचने पर जाम मिला क्योंकि फ्लाईओवर के काम ने सड़क को बीच से घेर कर तंग बना दिया है। पूरी यात्रा में यहीं से हमने कार में सुर-ध्वनियाँ बजानी आरंभ कीं। किस्सा हीर-रांझा और किस्सा अंजना-पवन सुनते रहे और मग्न होते रहे। सुंदर बाबू को किंचित ही सोने से फुरसत मिली हो। अब आगे कितना कहें, दोपहर बाद तो घर अपनी खटिया पर हम थे।
यात्रा-कथा की कड़ियां…- हाडौती-मेवाड़ यात्रा-वृतांत (मुख्य लेख)
- हाड़ौती का ग़रूर — बूंदी
- राजस्थान की नकाबपोश खूबसूरती — मेनाल
- मेवाड़ का गौरव — चित्तौड़गढ
मनजीत भाई बहुत ही शानदार विवरण राजस्थान यात्रा का मजा आ गया पढ़ने में,
जवाब देंहटाएंपहली हवाई यात्रा सच अपना अलग ही रोमांच होता है,