फूलों की घाटी (यात्रा-वृतांत) भाग-1

बेनज़ीर कुदरती खूबसूरती, दुर्लभ हो चुकीं उच्च पर्वतीय वनस्पतियों व जीवों का ठिकाना और सरकारी उपेक्षा का शिकार एक ऐसा स्वर्ग जिसकी मिसाल पूरे हिमालय में और कहीं भी नहीं है। जी हां मित्रों, ये आगाज़ है मेरी फूलों की घाटी की यात्रा का। और मुझे पूरा यकीन है कि यह यात्रा-वृतांत आपको एक अलग ही दुनिया से रू-ब-रू करायेगा। वर्ष 2004 में फूलों की घाटी को युनेस्को की विश्व विरासत सूची में सम्मिलित करने हेतू नामांकित किया गया था और एक वर्ष बाद यानि वर्ष 2005 में इसे युनेस्को द्वारा विश्व विरासत स्थल घोषित कर दिया गया। अब यह घाटी भारत में मौजूद कुल 35 विश्व विरासत धरोहरों में से एक है। तो चलिये चले चलते हैं देवभूमि उत्तराखंड में स्थित फूलों की घाटी की यात्रा पर, कुछ कदम मेरे साथ...


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पिछले कई साल से फूलों की घाटी जाने का प्रोग्राम बनते-बनते बिगङ जाता था। पिछले साल 2015 में तो बैग तक पैक हो गये थे और यात्रा ऐन वक्त पर टल गई थी। तब मैं खिसियाकर स्पीति की ओर भाग गया था। अबकी बार फिर से ऐन वक्त पर गङबङी हुई पर अबके जाट-बुद्धि अङ गई कि कुछ भी हो, अबके तो जाना ही है। गङबङी क्या पेश आई यह यात्रा-वृतांत के अंत में पता चलेगा।

23 अगस्त 2016 की रात शुरू होते ही मैं और मनीषा अपनी आल्टो 800 कार लेकर उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले में स्थित फूलों की घाटी की यात्रा के लिये निकल लिये। प्रथम हॉल्ट के रूप में हमेशा की तरह ऋषिकेश को लक्ष्य बनाया यानि इससे पहले कहीं भी दस मिनट से ज्यादा ठहराव नहीं। तत्पश्चात देवप्रयाग, रूद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग और नंदप्रयाग होते हुये जोशीमठ में रात्रि-विश्राम की योजना थी। तो यात्रा के पहले चरण में हम दिल्ली से गाज़ियाबाद पहुंचे। तत्पश्चात राष्ट्रीय राजमार्ग 58 को पकड़ा और वाया मेरठ, मुज़फ्फरनगर, रूड़की और हरिद्वार होते हुये सवेरे चार बजे ऋषिकेश तो क्या, मुनि की रेती को भी पीछे छोड़कर एक जगह गाड़ी रोक दी। सारी रात ड्राइविंग करने के बाद कुछ आराम तो बनता ही है चूंकि फिर से दिनभर ड्राइविंग जो करनी है। तो जी, सीट को पीछे खिसका कर मैं लंबा पसर गया। दस मिनट भी नहीं बीते होगें कि मच्छरों का आंतक शुरू हो गया। हमने बचने की गरज से चादर ओढ ली। लेकिन आप चाहें कुछ भी ओढ लें, ये नन्हें राक्षस अपना काम कर ही जाते हैं। ये बड़े ही बेशर्म होते हैं। ये नहीं देखते कि एक बंदा पिछले 24 घंटे से लगातार जाग रहा है, उसे थोड़ी देर तो कमर सीधी करने दो कि फिर से अगले 12 घंटे जागना है। मैं अक्सर सोचता हूं कि भगवान ने प्रत्येक प्राणी को किसी न किसी सोद्देश्य से बनाया है पर इन खून चूसने वाले प्राणियों से क्या लाभ होता है, ये मेरी समझ में आज तक नहीं आया। किसी तरह ढीठ होकर मैं एक घंटा पड़ा तो रहा पर आख़िरकार झल्ला कर उठना ही पड़ा। कार में जैसे लेटा जा सकता है वैसे ही सोया जा सकता है। नींद में अलसाई हुई आंखों का ज़हर कुछ निकला, कुछ रह गया। जो रह गया उसे किसी तरह पानी के छींटे मार-मार कर निकाला और फिर से चल दिये।

चूंकि अगस्त के आख़िर में मानसून ख़त्म हो चुका होता है फिर भी पहाड़ों के बरसाती नदी-नाले जीवित मिलते हैं। मानसूनी बारिश के फलस्वरूप हिमालय और इसके जंगलों की जवानी गदराई हुई मिलती है। और यकीन मानिये यह अक्षत जवानी इन बरसाती नदी-नालों के साथ मिलकर जो सम्मोहन पैदा करती है उसकी कोई नज़ीर नहीं है। तो नगर-सभ्यता से निकल कर सड़क किनारे जंगल में ऐसे ही एक बड़े से नाले पर हमने गाड़ी रोक ली और बारी-बारी से पेट खाली करने चले गये। भई वाह, ऐसी लाजवाब जगहों पर अगर रोज़ फा़रिग होने को मिल जाये, तो कभी भी पेट ख़राब नहीं होने वाला।

मुनि की रेती से करीब बीस-पच्चीस किलोमीटर आगे एक गांव आता है – माला। यह नदी के दूसरी ओर बसा हुआ है। तो इस तरफ सङक से इसे जोङने के लिये एक पुल भी बनाया हुआ है। इस गांव और ख़ासतौर से पुल को जो एक बार अनुभव कर लेता है वो हमेशा के लिये ऋषिकेश का राम-झूला और मुनि की रेती का लक्ष्मण-झूला भूल जाता है, ऐसा मेरा दावा है। पिछली बार जब जनवरी में औली गोरसों बुग्याल गया था तो इसी तरह सवेरे-सवेरे यहां पहुंचे थे। गाङी रोककर तब बहुत डुबकियां लगाईं थीं इस जगह गंगा में। लेकिन अब की बार केवल इस पुल के फोटो लेकर निकल लिये।

करीब आठ बजे मंदाकिनी और अलकनंदा के संगम देवप्रयाग पहुंचे। इस संगम के बाद उत्तराखंड की इन दोनों मुख्य नदियों का संयुक्त अस्तित्व गंगा के नाम से जाना जाता है। यानि आप यूं समझ लें कि गंगा नाम का उद्गम यहीं से होता है। पीछे गौमुख से जो नदी आती है वो भागीरथी है। तो गंगा का उद्गम गौमुख क्यों कहलाया जाता है, देवप्रयाग क्यों नहीं? खै़र, देवप्रयाग से निकल कर दसेक किलोमीटर चले होंगें कि भू-स्खलन की वजह से दो किलोमीटर लंबा जाम लगा मिला। वो तो भला हो कि एक बङे सरकारी अधिकारी का आना हुआ तो झटपट सङक खोलने का काम शुरू हो गया। फिर भी यहां दो घंटे का वक्त ख़राब हो ही गया। अबकी बार गनीमत रही कि मनीषा को उल्टीयां नहीं आईं वरना तो गाङी में बैठती बाद में है और उल्टीयां पहले शुरू हो जाती हैं। हालांकि अब मैंने इसका अचूक हल खोज लिया है। आप भी इसे बेझिझक इस्तेमाल कर सकते हैं। आक के हरे पौधे का एक पत्ता पैर में पहनी हुई जुराब में और एक पत्ता अपने हाथ में रख लीजिये। बस इतना ही करना है, इसे मुंह में नहीं डाल लेना है। उल्टीयां बिल्कुल नहीं गिरेंगीं। दोनों पत्ते ताज़ा होने चाहिये, मुरझाये हुये या सुखे हुये पत्ते नहीं चलेंगें।

अबकी बार एक काम और भी किया। वो ये कि ना ही रास्ते में किसी नगर-बस्ती में रूके और ना ही किसी प्रयाग पर। सिर्फ़ एक जगह रूद्रप्रयाग से निकल कर एक झरने पर नहाये और वहीं थोङी आगे चलकर एक ढाबे पर पेट-पूजा की। इसका फायदा ये मिला कि सांझ से पहले ही जोशीमठ पहुंच गये। पहुंचते ही एक-दो होटलों पर कमरे के लिये पूछताछ की और एक होटल में 400 रूपये में ठिकाना बुक कर लिया।

यात्रा का पहला दिन बेहद थकावट और गर्मी भरा बीता। बस यही एक ख़राब बात है अपनी। जब भी इस रूट पर आया हूं तो सिंगल ड्राईविंग में ही दिल्ली से जोशीमठ पहुंचा हूं। परिणाम, रात को सोते समय थकावट के मारे शरीर कंपन करने लगता है। ऐसा महसूस होने लगता है कि जैसे भूकंप आया हो।
Mala Village, Uttarakhand
माला गांव का पुल (एन.एच. 58)
Before Devprayag, Uttarakhand
देवप्रयाग से पहले
Rudraprayag, Uttarakhand
रूद्रप्रयाग
Joshimath, Uttarakhand
जोशीमठ से दिखते विष्णुप्रयाग पॉवर प्रोजेक्ट के पहाङ
Joshimath, Uttarakhand
जोशीमठ से दिखाई देते नीलकंठ पर्वत की ओर के पहाङ


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