जैसा कि मैनें यात्रा-वृतांत की शुरूआत में ही फूलों की घाटी को सरकारी उपेक्षा का शिकार बताया था। सरकार इस घाटी में घुसने के डेढ सौ रूपये प्रति यात्री लेती है। विदेशियों के लिये तो यह रकम चार गुनी अधिक है। कोई डॉक्यूमेंट्री या व्यवसायिक वीडियो फिल्माने का शुल्क दस हज़ार रूपये से एक लाख रूपये तक है। एक एंट्री तीन दिनों तक मान्य होती है। यानि सरकार ने इसे राजस्व कमाने का अच्छा साधन बना लिया है। इस पर सरकार कोई सुविधा यात्रियों को देती हो, ऐसा नज़र नहीं आता। किसी भौतिक सुविधा की बात तो भूल ही जाईये, मूलभूत सुविधायें तक नदारद हैं। घाटी में घुसते ही अनेक नालों का बहाव पगडंडी से होकर गुज़रता है। कुछ तो काफी बङे हैं, जैसे कि प्रियदर्शिनी नाला, जिन पर पुल के नाम पर बल्लियां डाल दी जाती हैं। अपनी जान जोखिम में डालकर ही इन्हें पार करना होता है। किसी मुश्किल घङी में साथ देने के लिये वन-विभाग का कोई कर्मचारी भी नहीं होता है। ये सही है कि घाटी के संरक्षण के लिये यहां रात को रूकना मना है लेकिन दिन में भी किसी आपात स्थिति में सिर छुपाने की कोई व्यवस्था नहीं है।
फूलों की घाटी (यात्रा-वृतांत) : भाग-1 | भाग-2 | भाग-3 | भाग-4 | भाग-5 | भाग-6
खैर ये दिक्कतें व्यक्तिगत हैं लेकिन स्वयं घाटी पर भी कई खतरे मंडरा रहें हैं। सबसे पहला खतरा तो लोगों से ही है। हर साल फूलों की घाटी पहुंचने वाले यात्री बढ रहे हैं। कुछ तो व्यर्थ की उछल-कूद मचाने वाले बंदरों के समान होते हैं। आप बखूबी जानते हैं कि फूलों की कोमलता की तो मिसालें दी जाती हैं, जबकि वानरों के उत्पात के सामने तो कंक्रीट के महल तक नहीं टिक पाते, फूल-पत्ते कहां टिक पायेंगें। भारत के अधिकतर दर्शनीय-स्थल इस समस्या से जूझ रहे हैं। और यहां तो ऐसे लोगों पर नियंत्रण के लिये कोई है ही नहीं।
दूसरी समस्या बढते हुये प्रदूषण की है। घांघरिया में लगातार बढती समतल जमीन के मांग को पूरा करने के लिये पहाङ में बारूदों के विस्फोट किये जा रहे हैं जिससे लगातार ध्वनि और वायु प्रदूषण बढ रहा है। पहाङों को धराशायी करने के इस क्रम में लगातार होते भू-स्खलन और मिट्टी के कटाव की अनदेखी तो हो ही रही है, इस क्षेत्र में पहले से ही उत्पन्न किया जा रहा कचरा भी काबू में नहीं आ रहा। आप देखिये कि होटलों के पिछवाङे किस कदर पॉलीथिन बढ रहे हैं।
जमीन पर हो रहा मिट्टी का कटाव और आसमान में हो रहा ध्वनि व वायु प्रदूषण। |
फूलों की घाटी के दायें ओर पहाङ के दूसरी तरफ हेमकुंड साहिब है। वहां तक सङक का प्रस्ताव रख दिया गया था। साथ ही घांघरिया में 500 कमरे बनाने का प्रस्ताव भी मंजूर कर लिया गया था। विभिन्न संस्थाओं से इस परियोजना के लिये पचास करोङ रूपये भी जुटा लिये गये। स्वयं “इंटरनेशनल खालसा फाउंडेशन” ने भी इसके लिये धन दिया। पर्यावरण-प्रेमियों के भारी विरोध के आगे हालांकि उस प्रस्ताव को वापिस ले लिया गया। लेकिन जबरदस्त विरोध के बावजूद पुलना तक सङक पहुंचा दी गई है। बीस किलोमीटर परे गोविंदघाट में दो सौ गाङियों के लिये पार्किंग बना दी गई है। इसके अलावा हर रोज बीस से भी ज्यादा हेलिकॉप्टर उङानें जबरदस्त शोर करती हुईं घांघरिया तक पहुंच रहीं हैं।
वर्ष 2013 की प्रचंड तबाही के निशान अभी तक मिटे नहीं हैं। पुलना से आगे जंगलचट्टी और भ्यूंदर गांव में अभी तक लक्ष्मण-गंगा के क्रोध के चिह्न दिखाई देते हैं। इसके बावजूद नदी का अतिक्रमण अब भी जारी है।
एक अन्य खतरा है खुद घाटी के भीतर। एक पौधा होता है जिसे स्थानीय लोग “सरण” कहते हैं। पूरे भारत में इसकी 70 से भी अधिक प्रजातियां बताई जाती हैं। अकेले हिमालय ही में इसकी लगभग 40 प्रजातियां हैं जो 3000 मीटर के आसपास फलती-फूलती हैं। चूंकि फूलों की घाटी में पशुचारण 1982 से ही बंद है, जब इसे राष्ट्रीय उद्यान का दर्ज़ा दिया गया, तो सरण की आबादी भी इधर लगातार बढती गई। हालांकि ये पौधा मिट्टी के कटाव को रोकता है लेकिन अपनी आबादी बढाने के चक्कर में दूसरी प्रजातियों का विकास रोकने लगता है। ये ठीक वैसे ही है जैसे हिमालय के दूसरे हिस्सों में चीङ लगातार पैर पसार रहा है, अन्य स्थानीय प्रजातियों को रौंदकर। लेकिन यह प्राकृतिक प्रक्रिया है और कुदरत अपना प्रबंधन स्वयं कर सकती है, बशर्ते मानवीय दखल न दिया जाये।
पौधों का व्यापारिक उपयोग करने के लिये बेतहाशा दोहन भी एक बङी समस्या है। मनुष्यों से चल रही इस मूक लङाई में कुटकी और सलम-पंजा जैसे पौधे लगातार जीवन की जंग हार रहे हैं। ये दोनों ही पौधे औषधिय गुणों की खान हैं और हिमालय में अपना अस्तित्व लगभग खो बैठे हैं। फूलों की घाटी जैसे संरक्षित क्षेत्र में भी इनका घनत्व दो-तीन पौधे प्रति वर्ग मीटर से अधिक नहीं रह गया है।
इसके अलावा भी बहुत सारी बातें हैं जोकि अगर सारी लिखने बैठा तो किताब बन जानी हैं। ऐसी गतिविधियां इस पूरे क्षेत्र के बेहद नाज़ुक इको-सिस्टम के लिये गंभीर खतरा हैं।
ना केवल सरकार बल्कि लोगों ने भी इसे सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझ लिया है, चूंकि पर्यटक खूब रूख़ करने लगे हैं इस ओर। लेकिन सोना कमाने के चक्कर में इस मुर्गी की सेहत की किसी को फिक्र नहीं है। बस येन-केन-प्रकारेण मुनाफा कमाना ही ध्येय रह गया लगता है। लेकिन तब क्या होगा जब जल्दी-जल्दी सारा सोना बटोरने के चक्कर में इस मुर्गी की जान चली जायेगी? भारतवर्ष में ऐसी और भी कई मुर्गीयां हैं जिनकी जान पर बनी हुई है...
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बहुत बढिया भाई जी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
हटाएंNice description.
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