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बंजारा हूँ, मैं कहां बस्ती में रहता हूँ।
आवारा झोंका हूँ, अपनी मस्ती में रहता हूँ।
हिमाचल मोटरसाईकिल यात्रा का आज मेरा ये दूसरा दिन है। कल जब नारकंडा पहुँचा था तो मौसम खराब होने लगा था इसलिऐ यहीं रूक गया। फिर दिन ढले झमाझम बारिश भी खूब हुई। दोपहर बाद हिमालय में बारिश हो जाना कोई असामान्य बात है भी नहीं। सो ये सोचकर कि सुबह मौसम खुला हुआ मिलना ही है, आराम से सोये। लगातार 15 घंटे की बाईक-राइडिंग किसी को भी थका सकती है। मुझे भी थकाया। नतीजा ये हुआ कि आज नारकंडा से तैयार होकर निकलने में 10 बज गये। लंबी यात्राओं में समय महत्वपूर्ण होता है और हमने कम से कम तीन घंटे का वक्त जाया कर दिया। खैर बाईक के पास आये और अपना सामान बांधा। इसके बाद कुछ समय नारकंडा के आसपास के नजारे में लेने लग गया।
नारकंडा हिमालय की शिवालिक रेंज में करीब 2730 मीटर की उंचाई पर है। जाहिर है मौसम में ठंडक घुली रहती है। रजाईयों की जरूरत बनी रहती है। गर्म जॉकेट पहनने पर भी सितंबर की दस बजे की धूप बङी गुनगुनी लग रही थी। हिन्दुस्तान-तिब्बत रोड नारकंडा के बीच से गुजरता है। यह रामपुर-बुशैहर और शिमला के ठीक बीच में स्थित है। दोनों शहर इससे करीब 65-65 किलोमीटर आगे-पीछे हैं। मुख्य कस्बे के दक्षिण-पूर्व में है हाटू चोटी। 3000 मीटर से अधिक उंचाई वाली यह चोटी स्थानियों के लिये काफी पवित्र है। इस पर एक मंदिर भी बना हुआ है। कोई निजी होटल तो नहीं है, हां लेकिन एक सरकारी रेस्ट-हाऊस अवश्य है। नारकंडा कस्बे से करीब आठ किलोमीटर की चढाई के बाद वहां पहुँच सकते हैं। चाहे तो ट्रेकिंग कर सकते हैं या फिर अपने वाहन से भी जा सकते हैं। सङक उपर तक गई है। मौसम खराब ना हो तो अपना टैंट भी लगा सकते है। उत्तर-पूर्व की ओर देखने पर आपको कोटगढ के सेब के बाग आसानी से दिख जायेंगें। अच्छी क्वालिटी के सेब बहुत होते हैं यहां। सत्यानन्द स्टॉक्स (सैमुअल इवान स्टॉक्स) एक अमरीकी थे जिन्होंने इस क्षेत्र की अर्थव्यवसथा को सुधारने के लिये यहां सेबों की खेती आरंभ की थी। कोटगढ और थानाधार की दूरी नारकंडा से ज्यादा नहीं है। थानाधार भी एक सुंदर जगह है। एक झील भी है इसके आस-पास पर अब उसका नाम याद नहीं आ रहा। नारकंडा में एक पैट्रोल-पंप भी है। इसके बाद पैट्रोल-पंप रामपुर में ही मिलता है। नारकंडा से श्रीखंड महादेव भी साफ दिखाई देता है। उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर देखने पर यदि मौसम साफ हो तो श्रीखंड महादेव और कार्तिकेय चोटियां पहाङों की अंतिम कतार में खङी दिखाई देती हैं।
नारकंडा से चले तो मजा आ गया। क्या टकाटक चौङा रोड है। बीच में कुमारसैन के पास से सतलुज भी दिखने लगती है। इसके बाद का सफर सतलुज घाटी में ही चलेगा। कुमारसैन में सशस्त्र सीमा बल का ट्रेनिंग सेंटर है। हिन्दुस्तान-तिब्बत रोड पर ही कुमारसैन से बहुत आगे भी एक जगह सशस्त्र सीमा बल का ही ट्रेनिंग सेंटर है। हिन्दुस्तान-तिब्बत रोड खाब में खत्म होता है जो भारत-तिब्बत सीमा से ज्यादा दूर नहीं है। 3000 किलोमीटर से भी लंबी भारत-तिब्बत सीमा पर आई.टी.बी.पी. का ही पहरा है। इस रोड पर आई.टी.बी.पी. की 17वीं वाहिनी के ठिकाने हैं। खाब के बाद पूरे NH-05 पर आई.टी.बी.पी. का कोई ठिकाना नजर नहीं आया जो पहले स्पीति और फिर कुंजम से आगे लाहौल में चन्द्रा घाटी को पार कराता है। अजीब है! शायद मुख्य सङक से हटकर इनका कोई ठिकाना हो।
नारकंडा के बाद बङी मानव आबादी आती है रामपुर के रूप में, जो नाथपा-झाकुङी डैम के लिये भी प्रसिद्ध है जहां बिजली उत्पादन के सतलुज पर बांध बना हुआ है। असल में भागीरथी की तरह सतलुज को भी जगह-जगह बिजली बनाने के लिये बांधा गया है। जैसे- झाकुङी, करछम, वांगतू और भी न जाने कहां-कहां। भाखङा-नगंल तो हैं ही प्रसिद्ध। रामपुर कभी बुशैहर राजवंश के राजाओं की राजधानी भी रह चुका है। शहर में घुसने से पहले एक जगह रूके तो थे बाईक की चेन टाईट कराने के लिये पर चाय-ब्रेड शुरू कर दिये। चेन टाईट कराना भूल गऐ जिसका खामियाजा आगे जाकर भुगतना पङा। न केवल हिन्दुस्तान-तिब्बत रोड पर बल्कि आगे NH-05 पर भी रामपुर से बङा कोई शहर नहीं है। रिकांगपिओ भी बङा है पर रामपुर जैसा नहीं। पिओ है भी मुख्य सङक से थोङा हटकर। इस रोड पर रामपुर एक महत्वपूर्ण शहर है। कुल्लू यहां से करीब डेढ सौ किलोमीटर दूर है। अक्तूबर से अप्रैल तक जब मनाली-काजा मार्ग बंद हो जाता है तो कुल्लू-मनाली से काजा के लिये सात महीने तक परिवहन वाया रामपुर ही होता है। रामपुर में पैट्रोल भरवाया। पीछे सोलन के पास टंकी भरवाई थी। अब रामपुर में साढे चार लीटर पैट्रोल समाया है टंकी में। पौने आठ साल पुरानी मोटरसाईकिल ने पहाङों की चढाई-उतराई पर अच्छा औसत दिया है। पूरे रामपुर रविन्द्र महाराज तरसते रहे। यही कहते रहे कि इससे मेरा ब्याह करा दे, उससे मेरा ब्याह करा दे। भङक कर दी। अरै भाई मैं कोई शादी-ब्रोकर हूँ क्या? वैसे कुङियां वाकई सोणी हैं रामपुर की।
रामपुर से निकलने के बाद सङक अचानक ही वीरान होती चली गई। इक्का-दुक्का वाहन ही नजर ही आ रहे थे। फिर सङक पर झुके हुये पहाङ भी नजर आने लगे। फिर डैम वाला झाकुङी आया। झाकुङी के बाद ज्यूरी नामक कस्बा आता है जहां से सराहन के लिये सङक अलग हो जाती है। ज्यूरी से सराहन की दूरी करीब 18 किलोमीटर है। सराहन भीमाकाली मंदिर के लिये प्रसिद्ध है। श्रीखंड महादेव चोटी के भी वहां से स्पष्ट दर्शन होते हैं। इस यात्रा में सराहन भी मेरी लिस्ट में शामिल था लेकिन नारकंडा से निकलने में देर हो गई और सराहन को छोङना पङा। खैर आगे बढे। ज्यूरी से बीस-पच्चीस किलोमीटर चलने के बाद शिमला जिला खत्म हो जाता है और किन्नौर शुरू हो जाता है। किन्नौर में जैसे ही घुसे, सतलुज के उस पार दूर एक झरना नजर आया। वाकई बङा खूबसुरत था। पहाङ से उसका पानी गिरना शुरू करता, वो तो दिखाई देता, पर उंचाई से कहां गिरता, वो जगह दिखाई नहीं देती थी। जब हम इसके फोटो लेने के लिये रूके तो एक स्थानिय हमें देखता हुआ पास से गुजरा। दो-तीन फोटो ही लिये थे कि वो वापस आया और किसी गाईड की तरह उस झरने के बारे में हमें बताने लगा। बङा सुंदर झरना है, मैं कहने ही वाला था कि आप इसके फोटो अवश्य लेना, आसपास के गांवों के लोग इसे पवित्र मानते हैं, वगैरह-वगैरह। बङे प्रेम-पूर्वक बात कर रहा था। हम तो कायल हो गये उसके। रविन्द्र महाराज बीङी निकाल कर पीने लगा तो साथ में उसे भी ऑफर कर दी। वो और चिपकू हो गया। बाद में जब चलने लगे तो उसने गुरू नानक देव की एक तस्वीर थमा दी और भंडारे के पैसे मांगने लगा। अच्छा, तो ये इसलिये इतना प्यार दिखा रहा था! अब असलियत सामने आई है। मैंने साफ मना कर दिया और बाईक स्टार्ट कर दी। फिर जब वो भूखे पेट का वास्ता देने लगा तो रविन्द्र ने उसे दस का नोट पकङा दिया। उसने फौरन पकङ लिया। यानि वो भूखा नहीं था वरना दस रूपये में कहां पेट भरता है। इसके बाद कुछ दूर ही चले थे कि एक और झरना आ गया। इसने कैंपटी की याद ताजा करा दी। वैसा ही लग रहा था जैसा कैंपटी फॉल अपने पास वाले पुल से लगता है। बस ये वाला थोङा छोटा है उससे। जब उसके फोटो ले रहे थे तो एक गाङी आकर पुल पर रूकी और एक जींस-टॉप वाली मैडम फटाफट फोटो लेने के लिये उतरी और फटाफट चलती बनी। असल में वे रामपुर से ही हमारे आगे-पीछे चल रहे थे। किन्नौर में सूंगरा के बाद वांगतू आता है। वांगतू के आसपास ही सङक की हालत खराब होने लगती है जो बाद में बद से बदतर और बदतर से बदतरीन होती चली जाती है। बस कहीं कहीं पर पाँच-दस मिनट की सङक ही कोलतार के पैच वाली मिलती है अन्यथा हर जगह पत्थर-रोङी और छोटी बजरी फैली मिलती है। राईडिंग-कौशल की अच्छी परख होती है यहां। वांगतू से करीब छह-सात किलोमीटर के बाद सङक एक पुल को पार करती है और सतलुज के बाईं ओर हो लेती है। उसके बाद कभी दाऐं तो कभी बाऐं होती रहती है। वांगतू के बाद टपरी आता है जहां से सेब थोक में दिखने लगते हैं। वैसे तो सेब ठियोग के आसपास से ही दिखने लगते हैं पर टपरी के बाद आम हो जाते हैं। टपरी में चाय पी और थर्ड-क्लास समोसे खाये। यहां एक पंजाब दा पुत्तर मिला। बङा अच्छा लगा उससे बातें करके।
टपरी के बाद हम पहुँचे- करछम। करछम में सतलुज और बसपा नदी का सगंम होता है। करछम से सीधे सङक चली जाती है रिकांगपिओ की तरफ और दाऐं हाथ को सांगला और छितकुल की तरफ। छितकुल सङक से जुङा से हुआ सांगला घाटी का अंतिम गांव है जहां से हिमाच्छादित पर्वतों के एक से एक सुंदर नजारे देखने को मिलते हैं। छितकुल से आगे बसपा घाटी है जहां से कठिन ट्रेकिंग करके यामरांग और खिमोकुल दर्रों तक भी जा सकते हैं। ये दर्रे सीमा के पास हैं जो उस तरफ तिब्बत में खुलते हैं। जाहिर इनके परमिट मिलना बङी टेढी खीर है। मैं कम से कम छितकुल तक जाना चाहता था। जब करछम पहुँचा तो तीन से ज्यादा का वक्त हो चुका था। आज की मेरी योजना कल्पा में रूकने की थी। अगर अब छितकुल जाता तो समय से वापस आ ही नहीं पाता। ऐसी सुंदर जगह को भागमभाग में क्यूं निपटाऊं? छितकुल और सांगला को फिर कभी के लिये छोङ दिया और पिओ की ओर मोटरसाईकिल बढा दी। कुछ दूर चलने के बाद सङक तंग होने लगी और जाम भी लगा हुआ दिखने लगा। असल में चढाई पर एक ट्रक फंस गया था और केवल मोटरसाईकिल ही निकल सकती थी। गाङियों वाले मुंह लटकाये बैठे थे। कुछ ही आगे वो जींस-टॉप वाली मैडम भी खङी थी जिसकी गाङी बार-बार सर्र से हमारी बाईक के बराबर से निकल जाती और वो इतराती। अब हम उसे चिढाते हुये से उसके बराबर से निकले। जाम से निकल कर थोङा ही चले थे कि बहादुरगढ नंबर की एक जाईलो सामने से आती दिखी। बांछे खिल गईं हमारी की इत्ती दूर आकर कोई अपनी देस का, अपनी बोली का मिला है। जब वो पास आई तो मैनें पुछा कि भाई कौण से गाम का सै? उसने कहा कि भादरगढ का। पर वो रूका नहीं क्योंकि पीछे बैठी सवारियों ने कहा कि चलो-चलो, गाङी दौङाओ जल्दी। शायद वो ड्राईवर था और पीछे उसके मालिक बैठे थे। बांछे वापस मुरझा गईं। जाओ सालो, भगा लो गाङी। आगे जाम में भी तो रूकना ही पङेगा, तब भगा के दिखाना। रोड वैसे ही ख़त्म हुआ पङा है, इन्हें भगाने की पङी है!
आगे पोवारी आया। पोवारी के पास तिराहा बनता है। बाईं सङक उपर को रिकांगपिओ और कल्पा की ओर चढ जाती है। दाईं वाली सङक पूह और शिपकी-ला की ओर चली जाती है। हम रिकांगपिओ की ओर बढ चले। यहां से रिकांगपिओ दस किलोमीटर भी नहीं है और सङक भी कोलतार वाली है, हालांकि बहुत अच्छी नहीं है। जब रिकांगपिओ पहुँचे तो अंधेरा हो गया था। न हमें रिकांगपिओ में रूकना था, ना ही यहां कोई काम था, इसलिये मुख्य चौराहे से बाऐं मुङकर सीधे कल्पा की ओर चल दिये। रिकांगपिओ में हमारा काम कल शुरू होगा जब हम शिपकी-ला के परमिट के लिये अर्ज़ी लगायेंगें। आधा घंटे में कल्पा पहुँच गये। कल्पा छोटा सा कस्बा है जो पहले किन्नौर का जिला मुख्यालय हुआ करता था। अब जिला मुख्यालय को रिकांगपिओ में स्थानानंतरित कर दिया गया है। डी.सी., एस.डी.एम आदि सारे अधिकारी अब कल्पा की बजाय रिकांगपिओ में ही बैठते हैं। भागदौङ नहीं की और बस-स्टैंड के पास ही मौजूद एक होटल में जा घुसा। रविन्द्र को बाईक के पास छोङ दिया। मैनेजर अत्यंत विनम्र था। उसने कमरा दिखाया। मैंनें दाम पूछे। 800 रूपये। नहीं जी इतने का मेरा बजट नहीं है। कोई बात नहीं, चलिये सात सौ दे दीजिये। मैंने पाँचों उंगलियां दिखा दीं। मैनेजर साहब बोले कि नहीं-नहीं 500 तो बहुत कम हैं। पर आखिरकार 500 में कमरा झटक लिया। 500 रूपये में वाकई बेहतरीन जगह मिल गई थी रात गुजारने के लिये। केबल टी.वी., अटैच लैट्रीन-बाथरूम, गरम पानी के लिये गीज़र और अनलिमिटेड मुफ्त वाई-फाई। और क्या चाहिये इतनी कम कीमत में?
होटल की रसोई में ही बढिया खाना उपलब्ध था। पेट भर कर खाया। वास्तव में कल्पा से बेहतर रहना, खाना और खूबसूरती पूरी हिमाचल यात्रा में कहीं नहीं मिली। दिल में बस गया कल्पा। आज डेढ सौ किलोमीटर बाईक चलाई और नौ घंटे सफर किया।
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हाटू चोटी, नारकंडा |
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कोटगढ के सेब बागान |
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नारकंडा से दिखती चार धार |
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नारकंडा से उत्तर दिशा में देखने पर |
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दूर दिखता श्रीखंड महादेव |
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जूम करने पर स्पष्ट दिखता श्रीखंड महादेव |
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शिमला जिले के अंतिम छोर के दृश्य |
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यही वो जगह है जहां वो मीठी बातें करने वाला स्थानीय मिला था। दूर कहीं उपर झरना दिखा क्या? |
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अब दिखा? |
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दूर से ये दृश्य ऐसा लगता था जैसे पानी पहाङ फोङ कर निकल रहा हो। |
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उपर वाले फोटो का दूर से दृश्य। |
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शिमला खत्म, किन्नौर शुरू। |
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किन्नौर द्वार से नीचे दिखती सतलुज। |
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कैंपटी का छोटा भाई। |
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छोटे कैंपटी के पास जा़टरामू। |
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इससे आगे सङक पर कोलतार कहीं-कहीं दिखता है और पहाङ सङक पर ज्यादा झुकते जाते हैं। |
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रोड की दुश्वारियां शुरू हुईं। |
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अभी तो भू-स्खलन वाले एरिया की शुरूआत है। |
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कल्पा से दिखता किन्नौर-कैलाश रेंज का विहंगम नजारा। |
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पीछे दिखती किन्नौर-कैलाश रेंज की दो उच्चतम चोटियां 1. Jorkanden and 2. Sarong |
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Jorkanden |
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Sarong |
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Jorkanden |
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कल्पा में बर्फ-दर्शन |
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1.
हिमाचल मोटरसाईकिल यात्रा (दिल्ली से नारकंडा) भाग-01
2. हिमाचल मोटरसाईकिल यात्रा (नारकंडा से कल्पा) भाग-02
3.
हिमाचल मोटरसाईकिल यात्रा (कल्पा से चांगो) भाग-03
4.
हिमाचल मोटरसाईकिल यात्रा (चांगो से लोसर) भाग-04
5.
हिमाचल मोटरसाईकिल यात्रा (लोसर से कुल्लू) भाग-05
6.
हिमाचल मोटरसाईकिल यात्रा (कुल्लू से दिल्ली) भाग-06
7.
स्पीति टूर गाईड
8.
स्पीति जाने के लिये मार्गदर्शिका (वाया शिमला-किन्नौर)
9.
स्पीति जाने के लिये मार्गदर्शिका (वाया मनाली)