आज का समय कुछ ऐसा चल रहा है कि यदि आप किसी इंसान से निःस्वार्थ प्रेम करते हैं और इस प्रेम का इज़हार भी करते रहते हैं तो बहुधा सामने वाला यह समझने लगता है कि आप जरुर कोई स्वार्थ साधना चाहते हैं। आप स्वयं बारीकी से गौर करके देख लीजिऐ, लगभग हर जगह कुछ ऐसा ही चल रहा है। आज के व्यवसायिक माहौल में यह बिल्कुल आम हो चला है। अगर आप किसी से प्रेम करते हैं या आपके मन में किसी के प्रति लगाव है तो कोई जरुरी नहीं कि आपको बदले में प्रेम ही मिले। अब धोखा मिलने के चांस बढ गऐ हैं। लेकिन ऐसा केवल इंसानों के केस में है, जानवर आज भी वहीं हैं जहां प्रकृति ने उन्हें छोङा था। ये बेचारे इंसान की तरह अपना विकास नहीं कर पाऐ।
- गर्मियों के दिनों में जब सबकुछ सूखने लगता है, अपने घर में छांव में कहीं पर मिट्टी के एक तौले या बर्तन में पानी भर कर रखना शुरु कर दें। आपको बर्ड वाचिंग के लिऐ जंगलों में नहीं जाना पङेगा। कुछ ही दिनों में पंछियों की चहचहाहट से घर भर जाऐगा। हां घर वालों की डांट भी पङ सकती है क्योंकि आपके साथ रहने के लिऐ ये पंछी कुछ तिनके उठा लाऐंगें जो घर में फैल सकते हैं। और फिर घर खराब दिखेगा।
- आप राह चलती किसी प्यासी गाय को एक बाल्टी पानी पिला दीजिऐ और घर में वापस घुसने की बजाय जरा देर के लिऐ के लिऐ उसके शरीर को सहला दीजिऐ। आपकी प्रेम-दीवानी होकर अपनी खुरदरी जीभ से आपको चाटना शुरु कर देगी। अपने माथे से आपकी कमर पर रगङना शुरु कर देगी। तभी कोई इंसान भागा-भागा आऐगा और प्रवचन शुरु कर देगा- भगा दे इसनै। दुण (टक्कर) मार देगी। चल। हौ। है।
- एक ताज़ी जच्चा बिल्ली, जिसका दुध ही उसके बिलौटे का एक मात्र आहार है, उसके सामने थोङा सा दुध अपने हिस्से में से निकाल कर रखना शुरु कर दीजिऐ। कुछ ही दिनों में आपके पैरों से खुद को रगङना शुरु कर देगी। हां घर वालों की डांट भी पङेगी वो अलग बात है।
यह डांट और प्रवचन इसीलिऐ पङेंगे कि इंसान यह निःस्वार्थ प्रेम और जीव-मात्र पर दया करना भूल गया है। यह भूल गया है कि ईश्वर ने इन जीवों को उससे भी पहले पृथ्वी पर जन्म दे कर उतारा था। एक बीज की संतान हैं इंसान और ये बेज़ुबान जानवर। और क्षणिक आनंद के लिऐ इंसान अपने ही साथी जीव का शरीर काटकर खा भी लेता है औऱ पहन भी लेता है। और विडंबना देखिऐ कि फिर शांति की अरदास लेकर जाता भी उसी परमपिता परमात्मा के पास है जिसकी संतान को स्वयं काट कर खा गया। ऐसे दुर्भिक्षक को तो तीनों लोकों में शांति नहीं मिलेगी।
किसी किसी के घर में जानवरों की बढिया कद्र आज भी देखी जा सकती है। जहां कहीं भी इन बेज़ुबानों की कद्र है, ईश्वर की कृपा भी वहां स्पष्ट देखी जा सकती है। मैं ऐसे ही एक भाग्यवान घर का सदस्य हुँ। जानवरों से घर के सभी सदस्य लाङ करते हैं, खासतौर पर बंटी, मेरा छोटा भाई। उसका कुत्तों के प्रति और कुत्तों का उसके प्रति इतना अगाध प्यार है कि घर वाले तो घर वाले, बाहर वाले तक उसे कह देते हैं कि पिछले जन्म में तु कुत्ता ही था। और वो जवाब में खुश हो जाता है। आपके सामने इतना ज्ञान झाङने का मेरा मकसद एक भूमिका बांधने से भी था कि मैं आपको दिखा सकूँ कि आपके निःस्वार्थ प्रेम का जानवरों से क्या प्रतिफल मिलता है।
हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान के एक बहुत बङे भू-भाग में कुत्तों को रोटी डालने के लिऐ जब बुलाते हैं तो एक शब्द प्रयोग करते हैं- कुर, कुर, कुर। आप गली में खङे होकर कुर-कुर चिल्लाईऐ और श्वान महाशय आपकी ओर दौङे चले आऐंगें। लेकिन जिन राज्यों में इस शब्द का प्रयोग नहीं किया जाता वहां आप लाख कुर-कुर चिल्ला लीजिऐ, श्वान जी आपके पास से निकल जाऐंगे और देखेंगे तक नहीं। इसका अपवाद मैंने देखा जम्मू-कश्मीर राज्य में। हुआ यूं कि मैं एक बार सपरिवार वैष्णों देवी गया था। उपर भवन एरिया में कुछ कुत्ते देखे। आदतन उन्हें कुछ डालने के लिए जब कुर-कुर करके उन्हें बुलाया तो वे नहीं आऐ। आना तो दुर हमारी तरफ देखा तक नहीं, जबकि वे बिल्कुल पास ही थे। शायद कुर-कुर शब्द की उन्हें आदत नहीं है। लेकिन जब बंटी जाट महाराज ने चार बार कहा- कुर-कुर, कुर-कुर तो दौङे दौङे आऐ और एकटक उसे देखने लगे। फिर जब उन्हें दो रोटी डाल दी गई तो वे बंटी के पीछे-पीछे चल दिऐ। ना केवल पीछे-पीछे चल दिऐ बल्कि उसके पैरों को चाटने लगे, खेलने लगे। वे कुत्ते इंसान के ईजाद किऐ गऐ कुर-कुर शब्द के लिऐ प्रोग्राम्ड नहीं थे परंतु ईश्वर ने दोनों प्राणियों की प्रोग्रामिंग के वक्त जो भावनाऐं भरी थीं वो काम कर गईं।
तो जी चलिऐ आपको भी ले चलते हैं मां वैष्णों देवी की इसी दर्शन यात्रा पर। बोलो सांचे दरबार की जय। वैष्णों देवी जाने के लिऐ पहले जम्मू पहुँचा जाता है। जम्मू सङक, रेल और हवाई मार्ग द्वारा भारत के प्रमुख नगरों से बहुत अच्छी तरह जुङा हुआ है। जम्मू से कटरा, जोकि जम्मू-कश्मीर राज्य के रियासी जिले में है, तक निजी एवं सार्वजनिक परिवहन की चौबीसों घंटे सेवाऐं हैं। साधारण बसों से लेकर सुपर-डीलक्स गाङियों तक सब कुछ उपलब्ध है। आप जैसा गुङ डालेंगें वैसा मीठा हाज़िर। अब तो धुर कटरा तक रेलगाङियां भी जाने लगीं है। मां वैष्णों देवी का भवन है त्रिकुटा पर्वत पर। कटरा से माता के भवन तक चढाई के लिऐ बहुत बढिया रास्ता बना हुआ है। दुरी है 14 किलोमीटर। पहले इसे पैदल ही तय किया जाता था। बाद में संसाधन और सुविधाऐं बढती गईं। पालकियां और खच्चर जो धुर देवी के भवन तक पहुँचतें हैं। उसके बाद बैटरी से चलने वाले ऑटोरिक्शा और फिर हेलिकॉप्टर भी आ गऐ। पहले कष्ट उठाकर तीर्थ करने जाते थे। अब तो सुविधाऐं ही सुविधाऐं हैं। हालांकि ऑटोरिक्शा और हेलिकॉप्टर सांझी छत तक ही साथ ही देते हैं, उसके बाद तो पैदल ही चढना पङता है।
वैष्णों देवी की ओर
17 जनवरी 2011 को मेरे विवाह के उपरांत जब माता जी कहने लगीं कि एक बार सपरिवार वैष्णों देवी के दर्शन करवा दे, तो प्रोग्राम सेटल करते-करते तीन-चार महीने निकल गऐ। आखिरकार अप्रैल के पहले सप्ताह का प्रोग्राम फिक्स हो गया। 16301 अंडमान एक्सप्रेस में पाँच टिकटें बुक करवा ली गईं- माँ, बाबू जी, बंटी, मनीषा औऱ मैं। किस्मत से सारी सीटें स्लीपर क्लास के एक ही डिब्बे के एक ही कूपे में कन्फर्म हो गईं। अंडमान एक्सप्रेस चेन्नई से आती है और विजयवाङा-वारंगल-नागपुर-भोपाल-झांसी-दिल्ली-रोहतक-लुधियाना-सांबा होते हुऐ जम्मू पहुँचती है। दिल्ली से निकलने के बाद इसका एक मिनट का ठहराव बहादुरगढ स्टेशन पर भी है। इस गाङी के लिऐ यही हमारा भी आरोही स्टेशन था। बहादुरगढ स्टेशन पर इस गाङी के पहुँचने का समय है रात एक बजे। बहादुरगढ रेलवे स्टेशन मेरे घर से ज्यादा दूर नहीं है। करीब तीन किलोमीटर का रास्ता है। सङक बिल्कुल सुरक्षित है। मेरे एक चाचा जी हमें अपनी कार से स्टेशन तक छोङ गऐ। थोङी देर में ही भारतीय रेल जिंदाबाद हो गई। जिंदाबाद इसलिऐ क्योंकि अंडमान एक्सप्रेस चेन्नई से बहादुरगढ तक 2200 किलोमीटर से भी अधिक की दूरी तय करती है। फिर भी ट्रेन लगभग अपने सही समय पर आई और हम इसमें सवार होकर चल दिऐ। किसी को सोते से उठाना अच्छा तो नहीं लगा पर क्या करते हमें भी अपनी सीट की जरुरत तो थी ही। वो बेचारे जिन्हें हमने अपनी सीट से उठाया, आँखें मलते हुऐ किसी दुसरे डिब्बे में चले गऐ और हम अपनी अपनी सीट पर धङाम हो गऐ।/p>
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