आज सुबह छह बजे आँख खुली तो ख़ुद को काफी तर-ओ-ताज़ा पाया। मैं फिलवक्त शिलांग के पुलिस बाज़ार के एक होटल में हुँ और उत्तर-पूर्व भारत की अपनी इस यात्रा पर कल ही यहां पहुँचा हुँ। भारत के प्रतिष्ठित सरकारी प्रबंधन संस्थानों "इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट" की कङियों में सें एक शिलांग में भी है। इसका पूरा नाम है- राजीव गांधी भारतीय प्रबंधन संस्थान, जोकि पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी के नाम पर रखा गया है। इसी प्रतिष्ठित संस्थान में आज भारतीय नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की मेघालय सर्कल की मेरी परिक्षा भी है जिसका समय निर्धारित है प्रातः ग्यारह बजे। शिलांग में उत्तर-पूर्व भारत को समर्पित प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय "नार्थ-ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी" भी है। तो मैं उठा और होटल से निकलने के उपक्रम करने लगा। दैनिक कार्यों से निवृति के बाद नहा-धोकर अपना बैग पैक किया और लगभग आठ बजे होटल से निकल गया। आसमान बादलों से भरा हुआ था ओर हल्की-हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। पूरी संभावना थी कि जमकर बारिश होगी। शिलांग वैसे भी चेरापूँजी (Cherrapunji) और मौसीनरम (Mawsynram) के पास ही है जो पूरे विश्व में सर्वाधिक वर्षा वाला स्थान माना जाता है। अनुमान के अनुसार यहां वर्षा की औसत वार्षिक दर बारह हजार मिलीमिटर से भी अधिक है। आप स्वयं ही सोचिऐ कि इतने सारे पानी का यदि बेहतर संचयन और दोहन किया जाऐ जाऐ तो निचले इलाकों की पानी की कमी की समस्या का कुछ समाधान किया जा सकता है। हिमाचल प्रदेश की कुल्ह व्यवस्था यहां भी आज़माई जा सकती है (हालांकि कुल्ह की कद्र अब इसके ग्रह प्रदेश में ही नहीं है।) किसी को कोई फिक्र ही नहीं। कुछ हद तक लोग भी यथा राजा तथा प्रजा की तरह हो गऐ हैं। न प्रशासन को फिक्र, न ही शासन को और न ही शाासितों को।
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शिलांग भ्रमण
अब आपको ज़रा शिलांग का भूगोल बता देता हुँ। शिलांग की समुंद्र तल से औसत उंचाई 1500 मीटर है। चेरापूँजी और मौसीनरम की तरह शिलांग भी भारत के मेघालय राज्य के ईस्ट खासी जिले में है और जिला मुख्यालय भी। शिलांग मेघालय की राजधानी भी है और दो भागों में बँटा हुआ है- अपर शिलांग और लोअर शिलांग। यहां की सबसे उंची चोटी है शिलांग पीक जो समुंद्र तल से 1950 मीटर से कुछ अधिक बताई जाती है। शिलांग में रेल तो नहीं पहुँची है पर यह सङक और वायु मार्ग द्वारा शेष भारत से अच्छी तरह जुङा हुआ है। गुवाहाटी लगभग 135 किलोमीटर दूर है, सङक अच्छी बनी हुई है। नजदीकी एय़रपोर्ट उमरोई (Umroi) में है जो मुख्य शिलांग शहर से लगभग 35 किलोमीटर दूर है। आज की मेरी परीक्षा अपर शिलांग के नौंगथीमई इलाके में स्थित राजीव गांधी भारतीय प्रबंधन संस्थान में है।
होटल से निकलकर मैं किसी ऑटोरिक्शा की तलाश में चल पङा। मैं आमतौर पर पैदल चलने को तवज्जो देता हुँ पर परिक्षा की वजह से आज कोई वाहन जरुरी था। फिर उपर से बारिश का भी डर था। अलसुबह का वक्त था और कोई टेंपो या ऑटोरिक्शा दिखाई नहीं पङ रहा था। मैं रुकना नहीं चाहता था इसलिऐ पैदल ही चलता रहा। थोङी देर में बारिश भी तेज हो गई तो एक पेङ के नीचे खङा हो गया। कुछ देर बाद एक वाहन आया। हाथ देकर इसे रुकवाया और नौंगथीमई चलने के लिऐ पुछा। डृाईवर ने कहा कि नौंगथीमई पाँच किलोमीटर है और तीस रुपऐ लगेगें। मैं फंसा हुआ था, मरता क्या ना करता, तीस रुपऐ दुख रहे थे मगर बैठ लिया। शिलांग में मुझे टेंपो या ऑटोरिक्शा का विकल्प यही वाहन लगे जो बाद में बहुतायत में दिखने लगे। इस में बैठते ही झमाझम बारिश चालू हो गई। इस वाहन का नाम है- मारुति 800 कार। जी हाँ कार और लगभग सभी बढिया कंडीशन की। हमारे उत्तर भारत के बदसूरत टुटे-फुटे टंपुओं से कहीं बेहतर। जे.एन.यू.आर.एम के तहत ली गईं लो-फ्लोर बसें भी हैं बिल्कुल दिल्ली जैसीं मग़र भीङ-भाङ और धक्कम-पेल से मुक्त। शहर की सङकों की कंडीशन बेहतर है और उन पर चलने वाली लङकियों की भी। दोनों ही दिल्ली जैसीं बेडौल तोंदफूली नहीं हैं। लङकियों का पहनावा है टॉप, जींस, स्कर्ट और ऐसा ही काफी कुछ। लङके भी कम नहीं हैं। इनका पहनावा भी आधुनिक है। यार ये शिलांग है या स्काटलैंड! आम उत्तर भारतीयों के दिमाग़ में उत्तर-पूर्वी भारत की ऐसी इमेज कतई नहीं है। अधिकतर लोग ईसाई हैं। ईसाइयत यहां साफ झलकती है- लोगों के खानपान में, पहनावे में, जबान में और हरेक चीज़ में। हिन्दी बोली जाती है मगर आम बोलचाल की भाषा नहीं है। आम बोलचाल की जबान है खासी। अंग्रेजी भी काफी है। यहां तक कि टैक्सी डृाईवर भी हिन्दी के बजाय अंग्रेजी ज्यादा अच्छी तरह समझते दिखे।
भारतीय प्रबंधन संस्थान, शिलांग
मूसलाधार बारिश के बीच अपने गंतव्य पर पहुँचा। परीक्षा-स्थल पर आने वाला मैं पहला उम्मीदवार था जो निर्धारित समय से लगभग दो घंटे पहले ही पहुँच गया था। जरुरी कागज़ात की चेकिंग के बाद मुझे तुरंत ही अंदर जाने दिया गया। अंदर घुसते ही आप स्वयं को एक बढिया तरह बनी सङक-सी पर पाते हैं। इसके बाईं ओर बास्केटबाल का मैदान और मैदान से थोङा उपर घास का लॉन है। लॉन के आगे कंकरीट का चबूतरा और फिर मुख्य रिसेप्शन भवन। सङक के दाईं ओर कुछ पेङ और शीशे के एक कक्ष। पता नहीं इसका क्या काम है। सङक जरा-सी चलते ही दाऐं को होती है और फिर बाऐं घुमते हुऐ कंकरीट के चबूतरे पर पहुँचा देती है। मै सीधा मुख्य भवन में पहुँचा। यह रिसेप्शन जैसा कुछ बङा सा हाल है। अभी परीक्षा सीटिंग प्लान की कोई लिस्ट नहीं लगी थी। कर्मचारी ही इक्का-दुक्का आऐ थे। रिसेप्शन भवन में घुसते ही दाईं ओर कर्मचारियों की हाज़िरी के लिऐ बायोमिटृिक पंचिंग मशीन लगी हुई है। ठीक सामने बङा सा रिसेप्शन टेबल लगा हुआ है जिसके दोनों ओर से दो दरवाज़े रिसेप्शन कक्ष के बाहर पीछे की ओर खुलते हैं। बाईं ओर और रिसेप्शन टेबल के ठीक सामने बैठने के लिऐ लकङी का फर्नीचर लगाया गया है। मुख्य रिसेप्शन भवन के बाऐं तो कुछ ख़ास नहीं है पर दाईं ओर चलने पर कैंटीन और फिर कक्षाओं के कक्ष। इसी के साथ हॉस्टल। इसी हॉस्टल में मुंबई के एक लङके से भी मुलाकात हुई। यह जनाब मुंबई से यहां विद्यार्जन हेतु प्रवेश लिऐ हुऐ हैं। कक्षा-कक्षों के उपर सौर पैनल लगाऐ गऐं हैं ताकि सूर्य की रोशनी से बिजली बनाई जा सके और संस्थान की विद्युत आवश्यकताऐं पूरी की जा सकें। कैंटीन में खाना तैयार किया जा रहा था। गर्मागर्म पूङियां, आलू की सब्जी, रायता औऱ खीर। मैंने लगभग पचास घंटे से कुछ खास नहीं खाया था केवल कुछ नमकीन और मा़जा। दिल्ली से दो हज़ार किलोमीटर दूर इतना स्वादिष्ट खाना देखकर जी ललचा गया। लालच और भुख में किसी बावले कुत्ते की तरह मुँह से लार तक टपक पङी। केवल बीस रुपऐ में छक कर खाया। कसम से ऐसा लजी़ज़ खाना आज तक नहीं खाया। इलायची और सौंफ मिक्स पूङियों की तो मैं आजतक दाद देता हुँ। मेरी पत्नी का हाथ रसोई में जबरदस्त है जिसकी सभी तारिफ़ करते है। मगर वैसी पूङियां आज तक उसके हाथों से भी उत्पादित नहीं हो सकी हैं। मैं काफी देर तक आई.आई.एम. शिलांग के परिसर में इधर-उधर घुमता रहा। फिर जब समय हो गया तो परीक्षा देने चला गया। सौ अंकों का पेपर था जिसकी समयावधि डेढ घंटा थी। मै 98 अंक का पेपर करने में सफल रहा।
शिलांग के नजदीक पर्यटक स्थल
परीक्षा-समाप्ति के बाद सभी बाहर निकले। इन तीन-चार घंटों के दरम्यान दो मित्र भी बने। एक झांसी से रवि जो अब रेलवे में कार्यरत हैं। दुसरे होशंगाबाद से संजीव जो अब भारतीय वायु सेना में हैं और वडोदरा में तैनात है। संजीव के साथ मैं बाद में कामाख्या देवी के दर्शन करने भी गया था जो भारत के 52 शक्तिपीठों में से एक है। कुछ दुर्लभ चित्रों सहित इसका रोमांचक विवरण आप अगली पोस्ट में पढ सकते हो। अब मेरे पास लगभग दो दिन का समय और भी बचा हुआ था और कन्फयूजन में था कि अब कहां घुमने जाना चाहिये। चेरापूँजी या मौसीनरम जहां सबसे अधिक वर्षा होती है या काजीरंगा नेशनल पार्क जहां एक सींग वाले गैंडे होते है या उत्तर-पूर्व के जीवित रूट-ब्रिज देखने जो मेघालय राज्य के ईस्ट खासी जिले में ही हैं। एक विचार मणिपुर होकर आने का भी था। दिमाग़ में खिचङी बन गई विचारों की। एक जगह बैठ गया और उपलब्ध समय को देखते हुऐ योजना बनानी शुरु की। मैं रेलमपेल नहीं रहना चाहता था बल्कि आराम से घुमते हुऐ जितना हो सके विचरण करना चाहता था। यदि आपको अपनी प्राथमिकताओं का पता हो तो योजनाऐं बनाने में आसानी रहती है। उपलब्ध समय, स्थानों की दूरीयों और परिवहन को देखते हुऐ मैनें निर्णय लिया कि लुम स्थित नेहरु पार्क चला जाए जहां एक बहुत बङी झील भी है और उसके बाद नार्थ-ईस्टर्न पुलिस अकादमी। ये दोनों जगह मेघालय के रि-भोई जिले में हैं और गुवाहाटी जाने के रास्ते में ही पङती हैं। प्लान बनाकर चल पङे। मैं दिल्ली से अकेला आया था पर अब रवि और संजीव भी साथ थे। एक लो-फ्लोर बस पकङी और शिलांग बस स्टैंड पर आ गऐ। यहां से कोई भी गाङी लुम जोकि उमसाव गांव (उमियाम) में है के लिऐ नहीं मिल रही थी। अगर मिल भी रही थी तो गुवाहाटी तक का पूरा किराया मांगा जा रहा था। आखिर एक मारुति 800 पकङी और बङी मुश्किल से उसे डेढ सौ रुपऐ में चलने के लिऐ मनाया। हम तीन जने थे और प्रत्येक के हिस्से पचास रुपऐ आऐ। पहाङों के नज़ारे लेते हुऐ मजे से जा रहे थे कि उसने गाङी रोक दी और कहने लगा कि अब आगे नहीं जाऊंगा, मेरा नुकसान हो जाऐगा। मिन्नतें की गईं, गुस्सा भी दिखाया गया पर सब फेल। बंदे ने किराया भी पहले ले लिया था, घोङे की तरह अङ गया। आखिरकार तीन-चार किलोमीटर पैदल ही आना पङा। सार्वजनिक परिवहन की इसी दिक्कत के कारण मैं घुमने के लिऐ स्व-वाहन को प्राथमिकता देता हूँ यानि मोटरसाईकिल को। कार तो मंहगी पङती है। और सस्ती भी पङती हो तो क्या, जब अपन के पास है ही नहीं।
बड़ा पानी, उमियाम
तो जी चलते-चलते पहुँच गऐ उमियाम स्थित उमसाव गांव जहां मौजूद झील हमारी पहली मंजिल थी। शिलांग की तरफ से आते हुऐ उमसाव में घुसने से थोङा पहले सङक का कुछ हिस्सा पुल के रूप में झील के उपर से गुजरता है। यानि इधर वाले पहाङ और उधर वाले पहाङ के बीच में जो घाटी है उसे झील के रुप में पानी ने लबालब भर रखा है। इस पुल से निर्मल जलराशि का जो नजारा दिखाई पङता है उसे शब्दों में बयाँ नहीं किया जा सकता है। उंचे पर्वतों की गोद में पसरी इस अथाह जलराशि में जब इन पहाङों का अक्स चमकता है तो देखने वाला अवाक् खङा रह जाता है। जैसे किसी ने सम्मोहित करके आपको बींध कर खङा कर दिया हो। हमारा सम्मोहन जब टुटा तो यहां के फोटो भी लिये। मगर अफसोस इस पुल से लिऐ गऐ वो फोटो कैसे मेरे मैमोरी कार्ड से ग़ायब हो गये यह आज भी मेरे लिऐ अनसुलझा रहस्य है। यह पोस्ट ज्यादा ही लंबी हो गई है तो चलिये पढना छोङकर आपको आज लिऐ गऐ फोटो दिखाते हैं।
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आई.आई.एम. शिलांग में प्रवेश |
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आई.आई.एम. शिलांग में बास्केटबाल का मैदान |
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आई.आई.एम. शिलांग का नक्शा |
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आई.आई.एम. शिलांग के मुख्य रिसेप्शन भवन के पास |
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रिसेप्शन के ठीक सामने से प्रवेश-द्वार की ओर का फोटो |
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आई.आई.एम. शिलांग के कक्षा-कक्ष। यह फोटो कैंटीन से लिया है। |
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आई.आई.एम. शिलांग से बाहर एक कालोनी |
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हॉस्टल से मुख्य रिसेप्शन भवन की ओर |
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लुम (उमियाम) स्थित नेहरु पार्क का नक्शा |
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लुम स्थित नेहरु पार्क में जाटराम मन्जीत छिल्लर |
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उमियाम झील, उमियाम, मेघालय |
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उमियाम झील का एक और फोटो। यहां बोटिंग की सुविधा भी है। |
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लुम नेहरु पार्क में प्रेमी जोङा। शायद ये हर कहीं मिलते है। |
शाम हो चली थी जब हम अंदर पार्क में घुमकर बाहर आऐ। समयाभाव के कारण नार्थ-ईस्टर्न पुलिस अकादमी जाने का विचार रद्द कर दिया और गुवाहाटी की बस पकङकर गुवाहाटी आ गऐ। यहां रेलवे स्टेशन के पास एकमात्र उपलब्ध ढाबे पर खाना खाया और स्टेशन के अंदर ही फर्श पर पन्नी बिछा कर सो गऐ।
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