उत्तर-पूर्व की अपनी इस यात्रा की शुरुआत मैनें कल बहादुरगढ से की थी। दिल्ली, मुरादाबाद, बरेली होते हुऐ कल शाम तक मैं लखनऊ पहुँच गया था। मेरी सीट कन्फर्म नहीं थी और रात में गोंडा जंक्शन के आस-पास किसी तरह सीट का जुगाङ भिङा कर अपने सोने का इंतज़ाम किया था। आज तङके जब उठा तो पूरा बदन अकङा-सा महसूस हुआ। पैरों की हड्डियां शिकायत रही थी कि हमारी जगह और सीरत नीचे की ओर होती है जबकि तुमने हमें सारी रात आसमान की ओर उठाऐ रखा। मैने उन्हें पुचकार दिया कि अभी तो इब्तिदा-ए-इश्क है सनम, आगे-आगे देखिऐ होता है क्या...
खै़र मैं उठा और रेलगाङी के दरवाज़े की ओर चल दिया। दरवाज़े से बाहर देखा, हरे-भरे खेत पीछे छूटते जा रहे थे। पता नहीं ये बिहार का कौन-सा इलाका है। वापस डिब्बे में आ गया। बैग खोला। कोलगेट निकाली और दंतमंजन करने चला गया। इसके बाद लिया तौलिया और साथ में रबर की एक नाली और डिब्बे के अंत में बने पाखाना-कक्ष में पहुँच गया। मैं नहाऐ बिना नहीं रह पाता हूँ, गर्मियों में तो कतई नहीं। भारतीय रेल के पाखाने बुरी अवस्था में होते हैं लेकिन यह अभी ठीक-ठाक कंडीशन में था इसलिऐ मैं इसमें नहाने पहुँच गया। रबर की एक नाली को इसके अंदर उपलब्ध नल में लगाया और पानी की फ़ुहार से पूरा फर्श धो डाला। कपङे निकाले और नाली को सिर पर लगा लिया। मज़ा आ गया। रबर की ये नाली मैं इसी काम के लिऐ अपने साथ ले आया था। इस तरह नित्य-कार्यों से निपटते-निपटते आठ बज गये। गाङी समस्तीपुर पहुँच गई थी। नीचे उतरा और चाय-पकोङे का नाश्ता कर के इधर-उधर टहलने लगा। कुछ देर में गाङी चल पङी तो ज़ाहिर मैं भी चल पङा। दरवाज़े पर ही बैठ गया और बिहार-दर्शन में मशगूल हो गया। कंगाल बना के रख छोङा है यहां के राजनेताओं ने इस प्रदेश को। कोसी लगभग हर साल उपजाऊ मिट्टी की नई परत बिछा देती है यहां। इतने मेहनती लोग होते हैं बिहार के। फिर इस प्रदेश में तो प्राकृतिक संसाधन भी बहुत होते हैं, दिल्ली-हरियाणा-पंजाब से तो कहीं अधिक। मगर यहां में और वहां में अंतर देख लो आप। ज़मीन-आसमान का फर्क साफ़ नज़र आयेगा।
कल ही की तरह आज भी सारा दिन इसी तरह निकल गया। कभी दरवाज़े पर, कभी सीट पर किसी के पास, बीच-बीच में गर्मी से बचने के लिऐ कभी ऐ.सी. डिब्बे में। शाम हो गई। छह बजे के आस-पास ट्रेन बंगाल में घुस चुकी थी। न्यू जलपाईगुङी स्टेशन आने को ही था। यह स्टेशन यहां पर अपने ओरिजिनल नाम की बजाय एन.जे.पी. के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। यहां रात के खाने का प्रबंध कर लिया।
हालांकि मैं सुबह ही नहा लिया था पर आज पूरा दिन बिहार की सङती गर्मी में गुजरा था इसलिऐ फिर से नहाने मन कर रहा था। सो अपनी इस तुच्छ इच्छा-पूर्ति के लिऐ सुबह की तरह डिब्बे के अंत में बने पाखाना-कक्ष में पहुँच गया। जैसे ही अंदर घुसा नहा-धोकर फ्रेश होने की मेरी इच्छा पर तुषारापात हो गया। बिहार का प्रकोप सामने जो दिख रहा था। अब कुछ नहीं हो सकता था। बैरंग लौट आया। असम में कोकराझार पहुँचते-पहुँचते रात के ग्यारह बजने को आऐ पर मैं यूँ ही ट्रेन के दरवाजे पर बैठा रहा। कल यह गाङी सुबह लगभग चार मुझे गवाहाटी पहुँच देगी। वहां से सङक द्वारा लगभग 135 किलोमीटर दूर शिलांग पहुँचते-पहुँचते हो सकता मुझे शाम हो जाऐ। इस बीच सोने को का मौका ना मिल पाऐ ऐसा भी हो सकता है। ये सोचकर मैं उठा और एक उपर वाली बर्थ पर जाकर सो गया। आज किस्मत अच्छी थी। गाङी में एक-दो सीटें खाली पङी थीं।
साहेबपुर कमाल स्टेशन. (क्या यहां कमाल के साहब लोग रहते है? :-) ) |
कटिहार जंक्शन |
बिहार के खेत |
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