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चौथा दिन और आज किन्नौर से आऊट हो जाने की तैयारी। कल जब चांगो पहुँचा था तो जीभ में कसक थी इसके सेब परखने की। चांगो के सेब बहुत ही उम्दा क्वालिटी के बताये जाते हैं। ये नौ हजार फीट से भी ज्यादा की उंचाई पर फलते हैं। लेकिन शाम ही से घर की याद आने लगी थी। जी करता था कि बस कैसे भी उङकर अभी घर पहुँच जाउं लेकिन मैं नभचर तो नहीं। काश होता! रविन्द्र का भी यही हाल था। मैं पहले भी घर से बाहर कई-कई दिनों तक रह चुका हूँ, वो भी ऐसी परिस्थितियों में जबकि जेब में पैसे तक नहीं बच पाते थे खाने के लिये।
शिलांग भ्रमण के दौरान 2500 रूपये से भी कम खर्चे में एक सप्ताह की यात्रा कर डाली थी जिसमें दिल्ली से आने-जाने का किराया, होटल और खाना सब कुछ शामिल है। एक यात्रा और भी है जब 12 दिनों की यात्रा मात्र 1200 रूपये में निपटा दी थी। पर अब से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ। अब तो काम चलाने योग्य पैसे भी जेब में रहते ही हैं। फिर भी अब ऐसा क्यों?
खैर जो भी हो। पिछले दो दिनों की शुरूआत में ही कम से कम छह-सात घंटे बरबाद कर चुके हैं। पर अब और नहीं। कुछ घर की याद और कुछ आज जल्दी निकलने के चक्कर में चांगो के सेब और गोंपा छोङ दिये गये। नहा-धोकर जब सङक पर आये तो सवा छह बजे थे। पूरे गांव में एक हम ही जगे हुये प्राणी थे। दुष्ट होटल वाले का कोई अता-पता नहीं था। दुष्ट इसलिये क्योंकि वो एक जरूरी वादा करके मुकर गया था। पोवारी के बाद सिर्फ एक बार मोबाईल नेटवर्क आया था और स्पीलो के बाद से हम लगातार मोबाईल नेटवर्क से बाहर थे। घर में हमारी रियल लोकेशन किसी को पता नहीं थी, न ही उन्हें यह पता था कि हम ऐसी किसी जगह पर हैं जहां मोबाईल काम नहीं करते। चांगो में रात को ग्यारह बजे के बाद ही बिजली ऐसी आ पाती है कि बी.एस.एन.एल. का टॉवर काम कर सके। यहां केवल बी.एस.एन.एल. का नेटवर्क ही है। होटल वाले ने हमसे वादा किया था कि वो अपने फोन से हमारी बात घर पर करवा देगा लेकिन कमरे के पैसे अदा करने के कुछ देर बाद से ही उसका कोई अता-पता नहीं था। सवेरे भी होटल में कोई नहीं था और मैं चाहता तो उसे इस करतूत का अच्छा मजा चखा सकता था। हालांकि ऐसा कुछ हम दोनों में से किसी ने नहीं किया। चेन-सेट कल ही जवाब दे गया था। चांगो में एक मैकेनिक से चेन कसवाई तो थी पर अब मुझे इस पर विश्वास नहीं रहा। ये कभी भी जवाब दे सकता है और काजा अब भी नब्बे किलोमीटर दूर है। इसलिये मेरी कोशिश रहेगी कि रविन्द्र को किसी दूसरे वाहन में काजा तक लिफ्ट मिल जाये। इसी उम्मीद के साथ चांगो को अलविदा कह दिया। खाब में संगम के बाद ही से स्पीति हमसफर बनी रहती है। चांगो के बाद शलकर आता है। शलकर तक सङक चौङी है और बदतर भी। उससे आगे समदू तक बदतरीन हालत में रहती है और तंग भी। कल मलिंग ने डराया था आज ये रोड कंपा रहा है। मलिंग में तो फिर भी खुला-खुला सा महसूस होता है, शलकर से समदू के दस किलोमीटरों में तो वो बात भी नहीं है। बिल्कुल तंग घाटी, बिल्कुल खत्म कंडीशन की सङक और स्पीति की धारा बिल्कुल पास। खा जाने को उतारू मलिंग से भी ढीले पहाङ तलवार की तरह मुसाफिरों के सिर के उपर लटके रहते हैं। ऐसे काले हुये पङे हैं जैसे किसी ने आग लगाकर फूंक दिये हों। कोयले और राख की खान हों जैसे। ऐसे खौफनाक नजारे में भी किसी को कविताई आ जाये तो वो महान है। इन रास्तों से स्थानीयों का रोज पाला पङता है, हम जैसे तो फिर भी कभी-कभार ही आते हैं। जीवन की कोंपलें भी कहां-कहां फूट जाती हैं?
लाहौल-स्पीति: समदू पहुँचते ही किन्नौर खत्म और लाहौल-स्पीति जिले में स्वागत हो गया। इसी के साथ सङक पर कोलतार भी आ गया जो अब बीच-बीच में काजा तक चलने वाला है बल्कि काजा से भी आगे मूरंग गांव तक चलेगा। हालांकि यह स्थाई बिल्कुल नहीं है और आधे से ज्यादा सफर पत्थर-रोङीयों पर ही करना है। समदू में ही तिब्बत से आने वाली परछू नदी का संगम स्पीति नदी से होता है। समदू लाहौल-स्पीति जिले की गियू ग्राम पंचायत के अधीन आता है। वही गियू जहां एक बौद्ध लामा की पाँच सौ साल से भी पुरानी ममी रखी है। समदू से दो किलोमीटर चलने पर एक पुल आता है जहां से गियू गांव मात्र आठ किलोमीटर उपर है। ये आठ किलोमीटर जबरदस्त चढाई वाले हैं। गियू की ममी भी मेरे कार्यक्रम में शामिल थी पर चेन-सेट ने वहां तक जाने ही नहीं दिया। समदू सैन्य इलाका है और सिविलियन्स के लिये नहीं है फिर भी यहां हमने हिमाचल टूरिज़्म वालों का एक रेस्ट हाउस देखा। समदू की महत्ता एक और बात के लिये भी है। वो ये कि शिमला से निकलते ही NH-22 के माइलस्टोन कौरिक नामक जगह की दूरियां लगातार दिखाते रहते हैं जिससे कईयों को यह अहसास हो जाता है कि कौरिक इस सङक का अंतिम बिंदु है। जबकि कौरिक NH-22 पर तो क्या, खाब के बाद रोहतांग-ला के पास ग्रम्फू तक जाने वाले NH-05 पर भी कहीं नहीं पङता। असल में कौरिक एक सैन्य ठिकाना है जो भारत-तिब्बत सीमा पर है। कौरिक के लिये एक अलग सङक समदू के ही एकमात्र तिराहे से उपर की ओर जाती है और इसका परमिट भी शिपकी-ला की तरह टेढी खीर है।
ताबो की ओर: समदू के बाद गियू पुल से थोङा आगे इस बौद्ध बहुल इलाके में एक छोटा सा हिन्दू मंदिर आता है, शायद किसी देवी का है। करीब बीस किलोमीटर तक बढिया सङक पर चलने के बाद फिर से उबङ-खाबङ मार्ग शुरू हो गया। फिर आया चंडीगढ। चौंकिये नहीं, यह ताबो से पहले एक गांव है जिसकी जनसंख्या वहां लगे बोर्ड के मुताबिक पाँच सौ भी नहीं है। उसके बाद दिमाग से जल्द ही उतर जाने वाले कुछ गांवों से होते हुये लरी और फिर ताबो पहुँचे। लरी और ताबो दोनों ही इस इलाके के बङे गांव हैं जिनमें कुछ सरकारी प्रतिष्ठान भी हैं। लरी में घोङे, खच्चरों का सरकारी प्रजनन और अनुसंधान केन्द्र है। एक अस्पताल भी है। ताबो तो पूरा कस्बा है। इस रूट पर आने वाला हर शख्स इससे वाकिफ़ है। ताबो में बैंक है, मोबाईल नेटवर्क है, पैट्रोल-डीजल है, साइबर कैफे है, सरकारी रेस्ट हाउस है, हेलीपैड है और वो तो है ही जिसके लिये यह मशहूर है- ताबो मोनेस्ट्री। ताबो में घुसते ही हरियाणा की एक बुलेट बाईक दिखी। अपने ठेठ अंदाज में उनसे पूछा- कित के सो भई? अपणी बोली सुन कर वे भी खुश, हम भी खुश, सबसे ज्यादा रविन्द्र खुश। कुछ औपचारिक बातें हुईं। वे आज रात ताबो में ही रूके हुये थे। मैंनें उनसे आगे का कार्यक्रम पूछा तो उन्होंने बताया कि वे काज़ा होते हुये मनाली की ओर निकल जायेंगें। जल्दी में लग रहे थे, हमने भी ज्यादा वक्त ना लिया। जल्दी वाले को जल्दी ही निकलने दो।
ताबो मोनेस्ट्री(Tabo Monastery or Tabo Chos-hKhor): ताबो में स्थित यह मठ एक कटोरेनुमा घाटी में अवस्थित है, अन्य गोंपाओं की तरह किसी पहाङ की चोटी पर नहीं। ये जगह रूक्ष है, ठंडी है और चट्टानी भी। फिर भी 1000 सालों से लगातार आबाद है। पूरे हिमालय का सबसे पुराना बौद्ध मठ ताबो मोनेस्ट्री ही है। इसे वर्ष 996 में स्थापित किया गया बताया जाता है। तिब्बत के गूग राजवंश के शासक रिंछेन जैंगपो को इसका संस्थापक माना जाता है जो संस्कृत-बौद्ध ग्रंथों के तिब्बती भाषा में अनुवादक के रूप में भी जाने जाते हैं। 996 में अपनी स्थापना से लेकर वर्तमान समय तक लगातार आबाद ताबो गोंपा अपने आप में अद्वितीय है। इसमें मंदिर हैं, स्तूप हैं और गुफाऐं भी हैं जिनमें चित्रकारी की गई बताई जाती है। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों का बङा ज़खीरा ताबो मोनेस्ट्री में संरक्षित है। मंदिर और स्तूप मुख्य परिसर में ही हैं जबकि गुफाऐं सामने के पहाङ पर कुछ उपर चढाई पर हैं। मठ के मुख्य द्वार से अंदर घुसते ही आप स्वयं को एक खुले आंगन में पाते हैं जिसमें मिट्टी से बने कुछ स्तूप हैं। इसके बाद सामने होते हैं कुछ मंदिर। हालांकि मिट्टी और गारे से निर्मित से सरंचनाऐं मुझे कहीं से भी मंदिर नहीं लगीं। इनमें से एक मंदिर, जिसका नाम था- ब्रोम-स्टोन ला-खांग, कभी दुमंजिला हुआ करता था। इसी का छोटा वर्जन बौद्ध तांत्रिक क्रियाओं के लिये उपयोग में आता रहा है। वही बौद्ध तांत्रिक क्रियायें जिनके द्वारा गौतम बुद्ध के भाई देवदत्त ने मगध राजवंश के राजा बिंबिसार के महत्वाकांक्षी पुत्र अजातशत्रु को वशीभूत करके उसके हाथों अपने ही पिता की हत्या करवा दी थी ताकि उसकी मदद से बुद्ध को हटाकर संघ पर अपना अधिकार कर सके। ताबो की गुफाओं की चित्रकारी देखने के लिये हम नहीं गये। ओरिजिनल मठ में अब शायद ही कोई रहता हो पर उसे लगातार संरक्षित किया जा रहा है। सारे बौद्ध सन्यांसी रहते अब भी इसके पास ही हैं। पुस्तकालय अभी खुला नहीं था। नौ-साढे नौ बजे खुलता, तब तक रूकने का सवाल ही नहीं उठता। इसके बाद नये तैयार हो रहे अंसेबली हॉल की ओर चले गये। यहां कमल पर विराजमान बुद्ध की विशाल प्रतिमा है। चारों दीवारों पर छत के पास भी अनेक मूर्तियां हैं। इस नये हॉल के बाहर ही विशाल कालचक्र स्तूप भी है। स्तूप के फोटो लेने के बाद हम हॉस्टल की ओर निकल गये। यह इमारत नये हॉल के पीछे ही है। यहां कुछ बालक धार्मिक शिक्षा-दीक्षा में लीन थे। अध्ययन का तरीका बिल्कुल वही था जो मदरसों में मुस्लिम बच्चों का होता है- आगे-पीछे हिलते हुये समझ ना आ सकने वाली गूं-गूं करते हुये। ज्यादा देर लगानी मुनासिब नहीं थी और जल्द ही हम आगे बढने के लिये अपनी बाईक पर सवार थे। ताबो से निकलते ही बाईक रिज़र्व में लग गई। रामपुर के बाद अब तक पैट्रोल नहीं भरवाया था। तुरंत कस्बे में वापस लौटे और नब्बे रूपये प्रति लीटर के हिसाब से पाँच लीटर पैट्रोल खरीदा।
ताबो से काजा: काजा अब भी पैंतालीस किलोमीटर दूर था। ताबो से निकलने के कुछ ही देर बाद मिट्टी के पहाङ शुरू हो गये। ये छोटे पत्थरों और रेत से बनकर खङे हुये हैं। हवा ने काट-काट कर इनकी अजीब-ओ-गरीब शक्लें बना दी हैं। बहुत सी जगहों पर मिट्टी का टॉवर-सा खङा होता है और उसकी चोटी पर बङा सा पत्थर रखा होता है। कई जगह पर ऐसा लगता है जैसे ये आप के सिर के उपर गिर पङेंगें। ये बहुधा गिर भी पङते हैं और अपने साथ सङक के कुछ हिस्से को भी स्पीति के हवाले कर देते हैं। फिर भी इनमें एक अजीब सी मजबूती है तभी तो धनकर का किला और गोंपा उन पत्थरों की तरह इन रेतीली-चट्टानी चोटियों के सिर पर टिके हुये हैं। काजा और ताबो के लगभग बीच में सिशलिंग नामक गांव आता है जहां से धनकर के लिये रास्ता अलग होकर उपर होकर चढता है। हम धनकर नहीं गये, कुछ दूसरी जगहों की तरह इसे भी भविष्य को लिये छोङ दिया। इसके वजह एक अन्य गोंपा का होना भी है। धनकर जाकर वहां न जा पाता तो अधूरा सा महसूस होता। बाईक पहले ही मरती जा रही है फिर वो तो और भी उंचाई पर है। सिशलिंग से थोङा आगे समलिंग में स्पीति और पिन नदी का संगम होता है। नदी का पाट भी इस एरिया में काफी चौङा है। समलिंग से आगे काजा तक गिने-चुने गांव ही मुख्य सङक पर पङते हैं। पहला तो लिंगति है जहां एक बिजलीघर है। उसके बाद लिदांग है। लिदांग से निकलने के बाद ताबो में मिले बुलेट वाले खङे थे। पास पहुँचने पर उन्होंने हमें पहचान कर रूकवा लिया।
>> यहां क्यों खङे हैं आप?
> स्पार्क-प्लग दिक्कत कर रहा है। पीछे वाले गांव में बाईक रूक गई थी पर तब चल भी पङी थी। अब तो स्टार्ट ही नहीं हो रही है।
>> ओहो, तो फिर अब क्या करना है?
> यदि आपके पास कोई चाबी-पाना हो तो प्लग निकाल कर देखते हैं।
लेकिन हमारे पास ऐसा कोई टूल या औज़ार नहीं था जो उनका प्लग खोल सके। उनका ही क्या, हमारे पास तो ऐसा ही कोई टूल नहीं था जो हमारी बाईक का प्लग खोल सके। पौने आठ साल पुरानी बाईक पर हम बगैर किसी टूल के सफर कर रहे थे। यहां तक कि अचानक बारिश की संभावना हो जाऐ तो हमारे पास एक पन्नी तक नहीं थी। वो सब भी छोङिये गर्म कपङों के नाम पर दो बंदों के पास केवल एक जॉकेट ही थी। इस दूर-दराज के इलाके में जहां गांव आठ-दस घरों के रूप में बहुत दूर-दूर आबाद हैं और जहां के पत्रों को भी मजिंल पर पहुँचने के लिये सरकार सात-आठ दिन का अतिरिक्त समय देती है, यह गलती नाकाबिले-माफी थी। म्हारा तो पूरी तरह सै राम ही रखवाला था। स्पीति घाटी में घुसते ही मैं खुद भी ऐसे ही घिर चुका था और तब एक कार वाले से मदद पाई थी। बेशक मैं जल्दी में था पर फिर भी उनकी खुले मन से मदद करने को तैयार हो गया। मैंनें उन्हें बाईक सौंप दी ताकि उनमें से कोई एक पिछले गांव में जाकर पेचकस, प्लायर्स और कुछ जरूरी टूल ले आये। उनमें से एक बंदा चला गया। जब वो वापिस आया तो केवल प्लायर्स के साथ था। इससे काम बना नहीं और अन्य कोई टूल मिला नहीं। अब केवल इक्का-दुक्का गुजरने वाली गाङियों से ही उम्मीद थी। जब कई देर तक बात नहीं बनी तो एकमात्र रास्ता बचता था- बुलेट को लोड करके ले जाने का। किस्मत से कुछ देर में एक लोडिंग गाङी आ गई। काजा तक बुलेट को ढोने के 1500 रूपये मांगे गये। हम भौंचक! मात्र 19 किलोमीटर के 1500 रूपये! बाद में 1000 रूपये पर आ गया पर बुलेट वाले 500 से ज्यादा नहीं दे रहे थे। गाङी वाला चला गया। फिर कुछ देर बाद एक कार वाला आया। उसके पास टूल मिल गये। यहां काफी वक्त बीत गया था और हम पहले ही अपने तय शेड्यूल से पिछङ चुके थे। जब हमें लगा कि अब हमारी कोई जरूरत नहीं रह गई है तो हमने उनसे विदा ले ली। बातों-बातों में उनसे पता चला था कि वे पिन वैली देखने जाने वाले थे और शाम तक लोसर पहुँचने का उनका इरादा था। इधर मैं चाहता था कि आज काजा से आगे कहीं तक भी निकल जाउं। काजा पहुँचना यानि आधी यात्रा पूरी करना। 1700 किलोमीटर से ज्यादा लंबी किन्नौर-स्पीति परिक्रमा में काजा मिड-प्वाइंट के समान है। यदि काजा से आगे निकल गये तो समझो घर-वापसी का राह पकङ ली। पिन वैली मेरे कार्यक्रम में कहीं नहीं था पर अब उसका भी लालच आ गया। तुरंत हिसाब लगाना शुरू कर दिया। अभी ग्यारह बजने को हैं, यदि पिन वैली जाता हूँ तो भी चार-साढे चार बजे तक काजा पहुँच सकता हुँ। डेढ घंटे में किब्बर और कीह निपटा कर छह बजे के आस-पास काजा को छोङ सकता हूँ। अंधेरा होने पर किसी गांव में ठहर जायेंगें और इस प्रकार आज ही घर-वापसी की राह पर होंगें। रविन्द्र की राय ली तो उसने सब मेरे उपर छोङ दिया। उसकी यही बात बेहद खास थी। पूरी यात्रा में चाहे हम कितने भी लेट हुये या चाहे कोई भी दुसरी बात हुई, बंदे ने कभी चूं तक नहीं की और मेरे प्लान के मुताबिक चलता रहा। NH-05 से पिन वैली जाने वाली सङक को जोङने के लिये स्पीति पर एक पुल बना हुआ है। यह लिदांग से थोङा ही आगे है। हम मुङने ही वाले थे कि पिन वैली के स्वागत बोर्ड पर एक छोटा सा कागज चिपका दिख गया। इस पर सूचना थी कि पिन वैली रोड पर ब्लास्ट के लिये इसे ग्यारह से दो बजे के बीच बंद रखा जायेगा। यानि पिन वैली जाना है तो दो बजे तक रूकना पङेगा। इतना वक्त किसके पास है खराब करने के लिये? तुरंत आगे बढ गये। पिन, कभी फिर आयेंगें तेरे आगोश में।
काजा: बारह बजे तक काजा पहुँच गये। काजा काफी बङा नगर है और इसके बङा होने की बङी माकूल वजह हैं। दिशाओं के नजरिये से देखें तो काजा के उत्तर में लद्दाख है पर वहां तक कोई सीधी सङक नहीं है। दक्षिण में रिकांगपिओ है और वहां के लिये सङक दक्षिण-पूर्व दिशा से घुमकर जाती है। पश्चिम में मनाली है और वहां के लिये सङक उत्तर-पश्चिम दिशा से घुमकर जाती है। पूर्व में तिब्बत है और सीमा के पास होने के कारण न वहां सङक जाती है और न ही कोई खास आबादी है। काजा से तीन दिशाओं में सङक जाती हैं। जो सङक किब्बर जाती है वो वहां से आगे चिच्चम गांव में भी जाती है। चिच्चम के बाद वही सङक पगडंडी बनकर आगे बढती है और पहाङों से लङती-भिङती हंसा से कुछ पहले मनाली-काजा रोड में मिलकर खत्म हो जाती है। बाकि बची दोनों सङकें संकरी घाटियों और बंजर-बीहङों में से होकर गुजरती हैं। काजा से पहली सङक जो शिमला की ओर जाती है उसपर पहली बङी मानव आबादी रिकांगपिओ के रूप में 200 किलोमीटर दूर है और दूसरी सङक जो मनाली की ओर जाती है उसपर पहली बङी मानव आबादी मनाली के ही रूप में 210 किलोमीटर दूर है। शिमला की ओर तो फिर भी जीवन लायक गतिविधियां और परिस्थितियां हैं पर मनाली की ओर बढते हुये तो परिस्थितियां ऐसी हैं कि रोड ही पाँच-छह महीने के लिये खुलता है। उधर तो कोई बङी बसावट हो ही नहीं सकती। कुल मिलाकर काजा का भूगोल इतना जटिल है कि पहले से ही अलग-थलग पङी स्पीति घाटी में यह और भी अधिक अलग-थलग पङा हुआ है। काजा जहां बसा हुआ है वो काफी चौङी घाटी है और कुछ उपजाऊ भी। सो यहां पर जनसंख्या भी कुछ अधिक है। काजा उसी प्राचीन रूट पर पङता है जिससे होकर कभी मंगोलों ने भी पश्चिमी हिमालय के इलाकों पर आक्रमण किया था। इसके अलावा लद्दाख-ल्हासा की लङाईयों में भी सेनाऐं इसी रास्ते होकर गुजर चुकी हैं। इन सेनाओं के आक्रमण के लपेटे में की-गोंपा भी आ चुका है। धीरे-धीरे चलते भी रहे और काजा-दर्शन भी करते रहे। शाक्य-तेंगयू मठ दिखा। उसके फोटो लेने के रूक गये। फिर एक पैट्रोल-पंप दिख गया तो टंकी फुल कराने के लिये रूक गये। यहां बोर्ड लगा था जिसके अनुसार यह संसार का सबसे उंचा पैट्रोल-पंप था। तो क्या वाकई आज संसार में सबसे अधिक उंचाई पर स्थित पैट्रोल-पंप से तेल भरवाया था? काजा में हर तरह की सुविधा है। मोटरगाङियों के लिये पर्याप्त मैकेनिक हैं, स्पेयर-टूल हैं, तेल है। मोबाईल फोन के लिये नेटवर्क है लेकिन केवल बी.एस.एन.एल का। हम और आप जैसे घुमक्कङों के लिये होटल हैं, खाना है- शाकाहारी भी और मांसाहारी भी। मैं यहां से बाईक का चेन-सेट बदलवा सकता था पर जबसे चेन कसवाई थी तब से कोई खास दिक्कत नहीं आई थी। फिर ये सोचकर कि दिल्ली में ओरिजिनल ही बदलवायेंगें, आगे बढ गये।
किब्बर और की-गोंपा: काजा से निकलने के बाद एक तिराहा आता है। यहां से सीधे किब्बर गांव की ओर एवं बाईं ओर पुल पार करके मनाली की ओर सङक चली जाती है। हमें सीधे जाना था। किब्बर में मेरी कोई विशेष रूचि नहीं थी सिवाय इसके कि इसे संसार में सबसे अधिक उंचाई पर आबाद गांवों में से एक माना जाता है जो सङक मार्ग से जुङा है। इसके अलावा कीह गोंपा भी देखना था जो इसी सङक पर है और स्पीति घाटी का सबसे बङा बौद्ध मठ है। यह अपनी भित्ति-चित्रों के लिये खासा मशहूर है। पुल से निकलने के बाद चढाई शुरू हो जाती है। कीह गांव तक पहुँचते-पहुँचते मुझे अंदाजा हो गया कि बाईक दो सवारों को किब्बर नहीं लेकर जायेगी। चढाई बहुत थी और मुझे ऐसा महसूस हुआ कि बाईक का दम घुट रहा है। हालांकि चेन-सेट ठीक काम कर रहा था। हमने तय किया कि एक यहीं रूके और एक किब्बर-कीह देखने चला जाये। अभी बातें हो रहीं थी कि विदेशियों की एक गाङी आ गई। फिर से रविन्द्र को लिफ्ट दिलाने की गरज से उस गाङी के देसी ड्राईवर को रूकवाया पर पीछे से विदेशियों ने मना कर दिया। उसके तुंरत बाद एक जीप आई और उन्होंने रविन्द्र को की-गोंपा तक लिफ्ट दे दी। मैंनें उसे अच्छी तरह समझाया कि वो मठ के मुख्य गेट पर ही मिले और मैं जल्द ही किब्बर से लौट आउंगा पर फिर भी मेरा शक उस पर बना रहा कि पता नहीं वो उसी जगह मिलेगा कि नहीं। चांगो में तो मिल गया था पर तब मैं बस के साथ-साथ ही पहुँच गया था। खैर उसे जीप में बिठा कर मैं किब्बर की ओर रवाना हो गया। कीह गांव के बाद एक तिराहा आता है जहां से सीधी सङक किब्बर जाती है और दाईं की-गोंपा। किब्बर यहां से पाँच किलोमीटर है और की-गोंपा एक किलोमीटर। मैं रूक गया और जीप के आने का इंतजार करने लगा। जीप के आते ही एक बार फिर से रविन्द्र को समझाया कि मठ के मुख्य गेट पर ही मिलना है। इसके बाद मैं किब्बर चला गया। गांव थोङी ही दूर था जब बाईक का दम फिर से घुटने लगा और वो बंद हो गई। खुद मेरे भी सिर में दर्द शुरू हो चुका था। यहां ऑक्सीजन का स्तर काफी कम है। सामने ही किब्बर गांव और उसका किला दिख रहा था, फोटो लिये और वापस हो लिया। कीह वाले तिराहे से निकलने के मात्र पच्चीस मिनट बाद मैं की-गोंपा लौट आया था। इधर-उधर देखा पर रविन्द्र महाराज का कोई पता नहीं था। मुख्य गेट के बाद आप खुद को एक बङे आंगन में पाते हैं जिसके पीछे एक पाठशाला भी है। मैं उससे भी पीछे बने घरों तक के पास जाकर आवाज लगा आया पर बंदे का कोई अता-पता नहीं। शायद उपर वाले गेट पर हो, ये सोच कर मैं वहां जा पहुँचा। की-गोंपा का मुख्य प्रवेश-द्वार तो नीचे ही है पर एक द्वार लगभग सौ मीटर उपर भी है जिसमें प्रवेश के बाद आप खुद को गोंपा के अंदर पाते हैं। वहां तक गाङियां नहीं जातीं पर बाईक जाती हैं। संकरा और बेहद खङा रास्ता है। जब उपर पहुँचा तो वो वहां भी नहीं। अंदर चला गया और वहां खङे कुछ बौद्धों से पता करने की कोशिश की पर सब व्यर्थ। अपनी जिम्मेदारी पर किसी को इतनी दूर साथ लाने का ये परिणाम होता है। दो छोटे-छोटे बच्चे जिनके साथ घर पर उनकी मां भी ना हो, यदि आपकी वजह से उनका पिता भी गुम जाये तो आप कहां जाकर मुंह छुपायेंगें? कुछ ऑक्सीजन की कमी और कुछ रविन्द्र की चिंता में सिर-दर्द इतना बढ गया कि मैं बदहवास हो गया। उसी बदहवासी में पूरी मोनेस्ट्री छान मारी पर सब बेकार। अगर आप मेरी जगह होते तो क्या करते, कृप्या कमेंट के जरिये अवश्य बतायें।
आखिरकार कुछ देर एक जगह बैठ कर दिमाग को शांत किया और ये सोचकर कि जल्द ही मिल जायेगा, नये सिरे से उसे खोजने के लिये फिर नीचे की और चल दिया। सीधा मुख्य गेट पर पहुँचा और सबसे पहले चाय की कोई दुकान तलाश करने लगा। मैं सोच रहा था कि शायद वो चाय पीने के लिये कहीं सरक गया हो। पुराना सा दिखने वाला एक रेस्त्रां दिखाई दे गया हालांकि अदंर से इसमें काफी चमक-धमक थी। यहां वही विदेशी बैठे थे जिन्होंनें लिफ्ट देने से मना कर दिया था। उन्हीं के पास ठुड्डी पर हाथ धरे एक कुर्सी पर रविन्द्र बैठा हुआ एक विदेशन को निहार रहा था। उसे देखते ही मैं घुटनों के बल हो गया। मुझे देखकर भी वो पास नहीं आया और बैठा-बैठा मुस्कुराता रहा। उसने चाय का आदेश दे रखा था पर वो रेस्त्रां वाली रूपयों को छोङ पुरी तरह डॉलरों की खुशामद में लगी पङी थी। उस वक्त इतना गुस्सा था कि फौरन यदि उस जगह को छोङ न देता तो पूरी तरह से आपा गँवा बैठता। रविन्द्र को बाईक पर बिठा कर तुरंत उस जगह को छोङ दिया। दिमाग भीं-भीं कर रहा था और बाईक असाधारण गति से भाग रही थी। साढे तेरह हजार फीट की उंचाई पर ये अपूर्णनीय क्षति का सबब बन सकता था। जल्द ही दिमाग को कुछ सोचकर शांत कर लिया।
काजा से लोसर: काजा के पास वाले तिराहे से जब मनाली की ओर मुङे तो लोसर साठ किलोमीटर दूर था। आज की मंजिल उसी को बनाया। चांगो से ही आसमान में बादल घुमङ रहे थे पर अब पहाङ से नीचे उतरने लगे थे। स्पीति में बारिश नहीं होती पर आज तो ये जनाब बरसने के पूरे मूड में लग रहे थे। मैं समझ रहा था कि शायद ये ज्यादा आगे तक नहीं मिलेंगें पर लोसर तक वे न सिर्फ साथ रहे बल्कि लगातार नीचे भी उतरते रहे। पहले रांगरिक गांव आया। यहां एक टोपीधारी मिला जिससे पूछने पर पता चला कि मोबाईल नेटवर्क अब लोसर में ही मिलेगा। फिर ख्यूरिक आया। यहां से किब्बर और की-गोंपा वाला रोड साफ दिखता है। काफी चौङी घाटी है। अगर स्पीति पर एक पुल यहां भी बन जाये तो ख्यूरिक और कीह के बीच कम से कम तीस किलोमीटर की दूरी कम हो जाये। फिर आया मूरंग। यहां से NH-05 अपने रंग दिखाने शुरू करता है। पांगमों गांव के बाद सङक रेत की पगडंडी हो जाती है। रेत की यह पगडंडी उंचे-उंचे पहाङों के बीच एक बेहद संकरी घाटी के दर्शन कराती है जहां स्पीति के एक सहायक नाले पर पुल बना है। घाटी के बाद ऐसी उंचाई पर भी चढाती है जिस पर 125 सीसी की बाईक दो सवारों को लेकर नहीं चढ सकती। अबकी बार जब रविन्द्र को पैदल चढने के लिये उतारा तो उसे दो लूप चढने पङे। बेचारा जब बाईक के पास आया तो एक हाथ की जीभ बाहर निकली हुई थी। बुरी तरह हांफते हुये थकान के मारे उसकी टांगें कांप रहीं थीं। इन लूप के बाद रेत की सङक धीरे-धीरे पथरीली होती जाती है। हंसा से काफी पहले ही सङक पत्थरों में खो चुकी होती है और बस उसके निशां ही बाकी बचते हैं। हंसा में भारतीय स्टेट बैंक की शाखा है। हंसा से निकलने के बाद बूंदाबांदी शुरू हो गई। लोसर अब भी बारह किलोमीटर दूर था और सिवाय चलते रहने के कोई चारा नहीं था। जब लोसर के काठ के पुल पर पहुँचे तो बूंदाबांदी बारिश में बदल चुकी थी पर अब क्या डरना। अब तो आज की मंजिल तक पहुँच चुके। सबसे बङी बात घर-वापसी के सफर पर साठ किलोमीटर आगे बढ चुके थे। यहां आकर सबसे पहले एक सज्जन का फोन मांगकर घर वालों को बता दिया कि हम कहां हैं। बाद में पता चला कि वह सज्जन यहां के एकमात्र डॉक्टर भी हैं। जिस चबूतरे पर खङे होकर फोन किया असल में वह एक होटल का चबूतरा था। होटल वाले ने कमरा दिखाया। पाँच बिस्तर लगे थे और हरेक का किराया सौ रूपये था। हमने तुरंत एक डबल-बैड चुन लिया। हालांकि यहां और भी कुछ लोगों के आने की संभावना थी पर कोई नहीं आया। उस रात सरचू गेस्ट-हाऊस का वो पूरा कमरा हमारा था। पाँच बिस्तरों और छह रजाईयों के साथ मात्र सौ रूपयों में। लोसर कुंजुंम-ला से उन्नीस किलोमीटर दूर है और लगभग तेरह हजार फीट की उंचाई पर है। जैसे जैसे दिन ढलता गया वैसे वैसे हालात विमुख होते गये। बादल नीचे आते गये और लगा कि जैसे हमारे हिस्से की ऑक्सीजन खुद सोख रहे हों। बारिश भी बढती गई और ठंड भी। आठ बजे तक हालात ये थे कि भूख तक खत्म थी जबकि सवेरे से एक चाय के सिवा कुछ भी पेट में नहीं गया। एकमात्र यह चाय भी लोसर में ही छह बजे के आस-पास पी थी। साढे आठ बजे चारा आ गया जिसे चरकर मैं अपने बिस्तर पर लुढक गया। अंतस में यह विश्वास था ही कि सवेरे तक बादल छंट जाने हैं और कल तक हम मनाली को निकल चुके होंगें। आज लगभग दो सौ किलोमीटर बाईक चलाई और सवेरे सवा छह बजे से शाम साढे पाँच बजे तक सफर किया।
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समदू से दुरियां। बाऐं हाथ को काजा व मनाली और सीधे उपर की ओर कौरिक। |
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गियू पुल के बाद। |
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लरी गांव से लिया गया फोटो। |
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पहाङ पर बने पैट्रन देखिये। |
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ताबो मोनेस्ट्री के नये हॉल में भगवान बुद्ध की प्रतिमा। |
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ताबो मोनेस्ट्री |
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ताबो मोनेस्ट्री का प्रवेश-द्वार। |
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यह मंदिर ताबो मोनेस्ट्री की स्थापना के प्रथम सौ वर्षों की कालावधि के दौरान बना था। |
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ताबो मोनेस्ट्री |
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ब्रोम-स्टोन ला-खांग मंदिर। यह कभी दुमंजिला होता था। यह ताबो मोनेस्ट्री की स्थापना के प्रथम पचास वर्षों की कालावधि के दौरान बना था। |
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ताबो मोनेस्ट्री |
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ताबो मोनेस्ट्री की पछीत। |
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ताबो मोनेस्ट्री |
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ताबो मोनेस्ट्री |
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ताबो मोनेस्ट्री। बैकग्राउंड की पहाङियों पर ही वे गुफायें हैं जो हिमालय की अंजता-ऐलोरा के रूप में विख्यात हैं। |
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उसी ओर जूम करने पर। |
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ताबो मोनेस्ट्री हॉस्टल। |
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ताबो मोनेस्ट्री में विद्याध्ययन। |
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कालचक्र स्तूप। |
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ताबो मोनेस्ट्री का इतिहास। |
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ताबो से दुरियां। |
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धनकर से पहले। |
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धनकर गोंपा की एक झलक। |
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धनकर गोंपा |
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धनकर गोंपा |
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धनकर किला |
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पिन-स्पीति संगम। बाईक की तरफ से आती स्पीति और वी गॉर्ज की तरफ से आती पिन। |
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शाक्य-तेंगयू मठ, काजा। |
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शाक्य-तेंगयू गोंपा। |
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शाक्य-तेंगयू मठ |
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शाक्य-तेंगयू मठ, काजा |
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शाक्य-तेंगयू मठ का प्रवेश-द्वार। |
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कीह गांव से की-गोंपा की झलक। |
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की-गोंपा |
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किब्बर की पहली झलक। |
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और पास जाने पर। |
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थोङा और। |
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किब्बर मोनेस्ट्री। |
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किब्बर से एक रास्ता तिब्बत की ओर भी निकलता है। पक्का तो नहीं पता लेकिन जो फोटो में दिख रहा है, शायद वही हो। |
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4. हिमाचल मोटरसाईकिल यात्रा (चांगो से लोसर) भाग-04
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