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उत्तराखंड मोटरसाईकिल यात्रा (दूसरा दिन)
कल उत्तराखंड की अपनी शुरूआत ही बारिश में की थी। बारिश भी ऐसी कि सुबह चार बजे बहादुरगढ से निकले हुऐ हम मोटरसाईकिल सवार 260 किलोमीटर दूर हरिद्वार तक एक दिन में भी नहीं पहुँच सके। दो किलोमीटर पहले ज्वालापुर में ही रूकना पङा। आज सवेरे जब छः बजे उठे तब भी बारिश जारी थी। मैं 16 जनवरी 2015 का सवेरा देख रहा था। इस बात से बिल्कुल बेखबर कि आज पहाङ पर मुसीबतों का पहाङ टुटने वाला है। वैसे तो उत्तराखंड में पिछले कुछ दिनों से लगातार ही बारिश हो रही थी पर आज सैलाब आने वाला था। आठ बजे तक मैं अपने नित्य कार्यों से निपट चुका था। सुँदर और कल्लू को भी जगा दिया कि वे भी निपट लें ताकि जैसे ही मौका मिले, आगे पहाङ के सफर पर निकल पङें। नौ बजे तक हम रेडी-टू-गो हो गऐ। लेकिन वर्षा रूकने के कोई आसार नहीं। धर्मशाला वालों से इस बात की भनक हमें मिल चुकी थी कि ऊपर पहाङों पर भी लगातार जबरदस्त बारिश चल रही है। एक बार यह भी विचार आया कि अबकी बार उत्तराखंड यात्रा रद्द कर देते हैं और घर लौट चलते हैं। विचार-विमर्श चल ही रहा था कि मूसलाधार बारिश चमत्कारी ढंग से रूक गई। बादल छँटे तो नहीं थे पर पानी की एक बूँद तक नहीं गिर रही थी। मैं आगे जाना चाहता था। साथी भी पीछे नहीं हटे। धर्मशाला वालों को पचहतर रूपऐ दिये और मोटरसाईकिल स्टार्ट कर आगे बढ चले। सङक पर आते ही भंयकर रूप से हुई बारिश का परिणाम देखने को मिल रहा था। जगह-जगह पानी भरा हुआ था। ज्वालापुर में स्वामी श्रृद्धानंद चौक के पास उपरी गंग नहर पर एक पुल है। इस पुल के पास वाले घाट पर एक छोटा सा मंदिर है। यह मंदिर गंग नहर में आधे से ज्यादा डूब चुका था। केवल ऊपरी भाग में शेषनाग का फन ही नजर आ रहा था। आगे बढे। बूंदाबांदी फिर शुरू हो गई। हरिद्वार में गंगा तट पर शोभायमान ऊंची शिव प्रतिमा के पास वाले पुल से गंगा को देखा। समुंद्र जैसी विशाल लहरें। एक मोटरसाईकिल के अवशेष भी देखे जिसे गंगा पता नहीं कहां से बहा लाई थी और यहां किनारे पर पटक दिया था। हर की पौङी की तरफ का जायजा भी लिया गया। पानी वाल्मिकी मंदिर में घुसने को उतावला था। धारा के ठीक बीच में विराजित देवी की प्रतिमा का भी कोई नामोनिशान नहीं था। गंगा का वैसा रौद्र रुप आज तक हरिद्वार में मैंने तो इससे पहले नहीं देखा था। हर की पौङी की सीढीयां डूब रही थीं और जीवनदायिनी मां आज चंडी का रूप धारण किये हुऐ थी।
अब विचार जरूरी था। हम गंगोत्री के लिऐ प्लान करके चले थे। पर इन हालात में गंगोत्री पहुँचने की सोचना ही बेवकूफी थी। बल्कि सुँदर के अनुसार तो आगे पहाङ पर जाना ही बेवकूफी थी। थोङे से विचार-विमर्श के बाद तय हुआ (जैसा कि मैं चाहता भी था) कि जितना हो सके आगे बढा जाऐ। गंगोत्री रद्द कर दिया गया पर गंगोत्री मार्ग पर यात्रा जारी रखी गई। हरिद्वार से निकल कर राजा जी नेशनल पार्क से होते हुऐ ऋषिकेश की ओर बढ गऐ। इस रास्ते में जो जंगल का इलाका पङता है वहां की तो छटा ही निराली थी। यौवन छाया हुआ था वनस्पति पर। जंगल में यात्रा का मंगल मनाते हम आगे बढते रहे। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 58 पर ऋषिकेश की ओर चलते हुऐ एक तिराहा बनता है। इस तिराहे से दाईं सङक जाती है ऋषिकेश की ओर तथा बाईं सङक जाती है गंगोत्री की ओर। यह बाईं वाली सङक ऋषिकेश की भीङ से बचाती हुई सीधे गंगोत्री हाईवे पर छोङ देती है। आगे चलकर यही फूलों वाली सङक भी कहलाती है। कमाल के प्राकृतिक दृश्य हैं इस रास्ते पर। कुदरती ख़ूबसूरती सङक के दोनों ओर बिखरी पङी है। अनछुआ सा सौंदर्य नजर आता है यहां। इतना अनछुआ कि इस सङक के बारे में प्रख्यात हिंदी यात्रा ब्लॉगर “नीरज जाट” भी अनभिज्ञ नजर आते हैं, जैसा कि अपने ब्लॉग पर “फोटोग्राफी चर्चा-2” के दौरान उनकी लेखनी से प्रतीत भी होता है। बूंदाबांदी के बीच हम आगे बढते रहे और गंगोत्री हाईवे पर दस्तक दी। यह एक तिराहा था जहां एक सङक ऋषिकेश की ओर से आकर मिलती है। यहीं हमें पता चला कि अगर हम गंगोत्री जाना भी चाहते तो जा नहीं पाते। उत्तरकाशी में भागीरथी ने तबाही मचाई हुई थी और गंगोत्री मार्ग अवरुद्ध हो गया था। इस तिराहे पर पुलिस ने बेरीकेड लगा रखे थे और आगे किसी भी मोटरवाहन के जाने की मनाही थी। जीप, कार और बसों की भारी भीङ लगी हुई थी। लोग प्रार्थना कर रहे थे कि उन्हें निकलने दिया जाऐ पर किसी के लिऐ कोई छूट नहीं थी। बारिश बिल्कुल बंद थी और रोड खुलने के पुरे आसार थे। लिहाजा हम भी वहीं इंतज़ार में खङे हो गऐ। बीस मिनट में ही मोटरसाईकिल वालों को जाने दिया गया।कल उत्तराखंड की अपनी शुरूआत ही बारिश में की थी। बारिश भी ऐसी कि सुबह चार बजे बहादुरगढ से निकले हुऐ हम मोटरसाईकिल सवार 260 किलोमीटर दूर हरिद्वार तक एक दिन में भी नहीं पहुँच सके। दो किलोमीटर पहले ज्वालापुर में ही रूकना पङा। आज सवेरे जब छः बजे उठे तब भी बारिश जारी थी। मैं 16 जनवरी 2015 का सवेरा देख रहा था। इस बात से बिल्कुल बेखबर कि आज पहाङ पर मुसीबतों का पहाङ टुटने वाला है। वैसे तो उत्तराखंड में पिछले कुछ दिनों से लगातार ही बारिश हो रही थी पर आज सैलाब आने वाला था। आठ बजे तक मैं अपने नित्य कार्यों से निपट चुका था। सुँदर और कल्लू को भी जगा दिया कि वे भी निपट लें ताकि जैसे ही मौका मिले, आगे पहाङ के सफर पर निकल पङें। नौ बजे तक हम रेडी-टू-गो हो गऐ। लेकिन वर्षा रूकने के कोई आसार नहीं। धर्मशाला वालों से इस बात की भनक हमें मिल चुकी थी कि ऊपर पहाङों पर भी लगातार जबरदस्त बारिश चल रही है। एक बार यह भी विचार आया कि अबकी बार उत्तराखंड यात्रा रद्द कर देते हैं और घर लौट चलते हैं। विचार-विमर्श चल ही रहा था कि मूसलाधार बारिश चमत्कारी ढंग से रूक गई। बादल छँटे तो नहीं थे पर पानी की एक बूँद तक नहीं गिर रही थी। मैं आगे जाना चाहता था। साथी भी पीछे नहीं हटे। धर्मशाला वालों को पचहतर रूपऐ दिये और मोटरसाईकिल स्टार्ट कर आगे बढ चले। सङक पर आते ही भंयकर रूप से हुई बारिश का परिणाम देखने को मिल रहा था। जगह-जगह पानी भरा हुआ था। ज्वालापुर में स्वामी श्रृद्धानंद चौक के पास उपरी गंग नहर पर एक पुल है। इस पुल के पास वाले घाट पर एक छोटा सा मंदिर है। यह मंदिर गंग नहर में आधे से ज्यादा डूब चुका था। केवल ऊपरी भाग में शेषनाग का फन ही नजर आ रहा था। आगे बढे। बूंदाबांदी फिर शुरू हो गई। हरिद्वार में गंगा तट पर शोभायमान ऊंची शिव प्रतिमा के पास वाले पुल से गंगा को देखा। समुंद्र जैसी विशाल लहरें। एक मोटरसाईकिल के अवशेष भी देखे जिसे गंगा पता नहीं कहां से बहा लाई थी और यहां किनारे पर पटक दिया था। हर की पौङी की तरफ का जायजा भी लिया गया। पानी वाल्मिकी मंदिर में घुसने को उतावला था। धारा के ठीक बीच में विराजित देवी की प्रतिमा का भी कोई नामोनिशान नहीं था। गंगा का वैसा रौद्र रुप आज तक हरिद्वार में मैंने तो इससे पहले नहीं देखा था। हर की पौङी की सीढीयां डूब रही थीं और जीवनदायिनी मां आज चंडी का रूप धारण किये हुऐ थी।
अब हम गंगोत्री हाईवे पर सफर कर रहे थे। इस सफर की कोई तय मंजिल नहीं थी चूंकि उत्तरकाशी में गंगोत्री मार्ग अवरुद्ध हो था। इसलिऐ जहां तक किस्मत ले जाऐ वहां तक जाना था। कल्लू की बाईक पर एक पुलिस वाले ने नरेन्द्र नगर बाईपास तक लिफ्ट ले ली थी। नरेन्द्र नगर में जब एक जगह फोटो खींच रहे थे तो तय किया कि इस बेमंजिल सफर को चंबा तक लिमिट कर देते हैं। नरेन्द्र नगर से चले तो फकोट कस्बे से करीब पाँच-सात किलोमीटर आगे भगौरी गांव में चायपानी के लिऐ रूके। यहां एक छोटे से रेस्टोरेंट में आलू के लजीज परांठे चाय के साथ खाऐ। यहीं टी.वी. पर केदारनाथ जल-प्रलय की ख़बरें भी पता लगीं। खाने के बाद बाहर सङक पर आकर थोङा इधर-उधर घुमें। वास्तव में यह इतनी बढिया जगह है कि मैं घुमता-फिरता सङक पर काफी आगे निकल आया। जब लौटा तो सुँदर और कल्लू चंबा को छोङकर यहीं रुकने के लिऐ अङे हुऐ मिले । उन्होंने पता कर लिया था कि यहां कमरे भी किराऐ पर मिलते हैं। नरेन्द्र नगर से यहां तक कोई खास परेशानी नहीं आई थी। इसलिऐ मैं आगे बढने के लिऐ अङा रहा तो उन्हें भी चलना पङा।
भगौरी से निकलकर वाकई मैंने गलती कर दी थी। आगे रोड भयानक रूप से सुनसान हुआ पङा था। जंगल जैसे सङक को खा जाना चाहता था। जगह-जगह भू-स्खलन हो रहा था। नाले और झरने अपने पूरे उफान पर थे। कहीं-कहीं तो पूरे वेग से सङक पर यूँ गिर रहे थे जैसे तोङने पर आमादा हों। मगर जैसे मुझ पर कोई जादू सवार था कि कुछ भी हो चंबा से पहले रुकना नहीं है। अपनी धुन में चलता रहा। पीछे सुँदर मौन-समाधि लिऐ बैठा रहा। एक गांव आया, मुझे उसका नाम याद नहीं है। यहां एक पुलिस वाला बेरिकेड लगाऐ बैठा था, हालांकि उसने रास्ता खोल रखा था। जब हम उसके पास से निकल कर करीब पचास-साठ मीटर आगे बढ गऐ तो उसने सीटी बजाई। पुलिस वाली सीटी नहीं बल्कि मुंह में उंगली देकर मारी जाने वाली सीटी। मैं रूका और पीछे मुङकर देखा पर उसने वापस लौटने का कोई इशारा नहीं किया। मैं आगे बढ चला तो उसने फिर वही हरकत दोहराई। मैंने फिर पीछे मुङकर देखा पर उसने अब भी कोई इशारा नहीं किया। मैं एक पुलिस वाले का बेटा हूँ। छोटे चाचा जी भी पुलिस में हैं। दादा जी भी पुलिस से रिटायर्ड हैं। ये अच्छी तरह जानता हूँ कि पुलिस किसी वाहन चालक को ऐसे नहीं रूकवाती। यह तो कोई तरीका ही नहीं है। उस सिपाही पर कोई ध्यान न देकर मैं आगे बढ गया। मैं तो निकल गया पर उसने कल्लू को धर लिया। यह बात हमें बताई एक स्थानीय बाईक वाले ने जब मैं और सुँदर दो-तीन किलोमीटर आगे उसके आने का इंतजार कर रहे थे। जब वो काफी देर तक नहीं आया था तो हमने राह गुजरते एक स्थानीय से पुछा था कि क्या उसने किसी यामाहा मोटरसाईकिल वाले को देखा है? असलियत का पता चलने पर हमें भी वापस लौटना पङा। वापस आते ही पुलिस वाला अपनी कार्रवाई में जुट गया। बाईकों के कागज मांगे जाने लगे। कागज दोनों बाईक्स के ही अधूरे थे। जब तक उस पुलिस वाले को रिश्वत नहीं मिल गई उसने हमें रोके रखा। पाँच सौ रूपऐ दोनों बाईक के देकर उस हरामखोर से पिंड छुङवाया। इसके अलावा मैदान के बारे में उसने एक बात और भी कही जिसे इस मंच पर सांझा करना ठीक नहीं होगा। उस दुष्ट का नाम था कांस्टेबल विकास।
चूंकि आगे पहाङ माहौल को बेहद भयानक बनाऐ हुऐ थे तो हम वापस लौट आऐ। सुँदर और कल्लू की भगौरी गांव में रूकने की इच्छा थी तो वहीं वापस लौट कर तीन सौ रूपऐ में डबल बेड का कमरा ले लिया। इस गांव में यात्रियों के रूकने का यह एक ही ठिकाना है। वापस लौटने के बाद हम सो गऐ और जब उठे तो शाम के चार बजने को थे। बाहर निकले और चाय पी। आज एक गढवाली गांव में रूकना हुआ था तो स्थानियों से बातचीत का अवसर भा नहीं गंवाया। भगौरी गांव का यह रेस्टोरेंट-कम-होटल रिटायर्ड फौजी कर्नल नेगी की मलकियत है। वे इस ग्राम पचांयत के सरपंच भी हैं। कुछ गांव वाले यहां बैठे थे। वे अपने पालतु पशुओं का दूध ले कर आऐ हुऐ थे। नेगी साहब ने थोक वितरकों के माध्यम से उनके दूध की बिक्री की व्यवसथा करा रखी है। ग्रामीणों को स्वयं अपना दूध ढोकर बेचने नहीं जाना पङता और उन्हें वाजिब दाम भी मिल जाते हैं। इसके अलावा आस-पास की बसावट को जोङने के लिऐ बढिया पक्की पगडंडियां भी उन्होंने बनवा रखी हैं। किसी इमरजेंसी के लिऐ गाङी का प्रबंध भी कर रखा है। बिजली की आपूर्ति बहुत बढिया है। और भी कई सारी सुविधाऐं कर रखी हैं। कुछ देर ग्रामीणों से बतियाने के बाद हम निकल पङे आस-पास के नजारे लेने। यहां दो-तीन झरने हैं हालांकि वो सदानीरा नहीं हैं। केले और फूलों के पेङ हैं। इसके अलावा थोङी सी ट्रेकिंग करके एक अन्य ग्रामीण बस्ती की ओर भी गऐ। वाकई मजा आ गया। एक दिन पहले यात्रा की असफलता को लेकर जो दुःख मन में उभर आया था वो जाता रहा। देर रात तक हम घुमते रहे। फिर खाना खाने के बाद भी घुमे। दस बजे के बाद सोऐ।
उत्तराखंड मोटरसाईकिल यात्रा (तीसरा दिन)
अगले दिन सुबह हम उठे तो घर लौटने का जबरदस्त दबाव था। खबरिया टी.वी. चैनलों ने घर वालों को चिंता में डाल दिया था। घर से कल से ही बार-बार हमारी वापसी के फोन घनघना रहे थे। करीब नौ बजे तक हम चलने को तैयार हो गऐ थे। फकोट और नरेन्द्रनगर होते हुऐ वापसी के लिऐ चल पङे। यात्रा की शुरूआत से ही बारिश ने मुश्किलें बढा रखी थीं पर आज बरसात के नाम पर एक बूंद तक नहीं गिर रही थी। इस यात्रा में शुरू से ही दिक्कतों का सामना करना पङ रहा था। बीच-बीच में कुछ दिक्कतें आपसे सांझा भी की। सोचा कि चलो वापसी में ही सही पर परेशानियों से पीछा तो छूटा। पर अभी बस कहां। ऋषिकेश मात्र पाँच किलोमीटर दूर था। हमेशा की तरह सुँदर मेरे पीछे बैठा था। करीब आधा किलोमीटर पीछे कल्लू चल रहा था। तभी एक मोङ पर जबरदस्त तरीके से मेरी बाईक फिसल गई। एकदम फिल्मी स्टाईल में मोङ की शुरूआत से घिसटनी शुरू हुई और करीब बारह-तेरह फीट सङक पर मोङ के अंतिम सिरे तक घिसटती चली गई। अगर गति जरा सी तेज और होती तो नीचे सैंकङों फीट गहरी खाई में गिरना तय था। काफी चोटें आईं। शुक्र था कि आगे-पीछे से कोई वाहन नहीं आ रहा था अन्यथा वहीं कुचले जाते। ऐसा होता है कि जब आप बाईक से गिर जाते हैं तो एकदम धङाम से गिर पङते हैं पर फिल्मी स्टाईल की इस फिसलन को सङक पर कुछ क्षणों तक घिसटते हुऐ हमने बखूबी महसूस किया।
मैं सोच कर रहा था कि हम गिरे क्यों? एक बार भी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि मैंने संतुलन खोया हो। यहां तक कि सङक पर घिसटते जाते हुऐ भी बाईक के हैंडिल को मैं उसी तारतम्य से पकङे हुऐ था। जब बाईक को उठाया तो पता देखा कि पिछले टायर में हवा नहीं थी। टायर में एयर-प्रेशर कम हो जाने का मुझे तुरंत पता चल जाता है। पर गिरने से ठीक पहले तक भी टायर में हवा कम हो जाने के कोई लक्षण मैंने महसूस नहीं किऐ थे। जाहिर है मोङ पर टायर में से एकदम हवा निकली थी। मेरी बाईक के दोनों टायर ट्यूबलैस हैं। ट्यूबलैस टायर की हवा एकदम से नहीं निकलती है। मैं चक्कर में पङ गया। खैर सुँदर को कल्लू की बाईक पर बैठाया और खुद टंकी पर बैठ कर ऋषिकेश की ओर चल दिया। मैं खुद लहूलुहान था पर बाईक चलाते रहने के अलावा और कोई चारा भी नहीं था। चोट लगने पर एकदम से गंभीर दर्द का अहसास होना शुरू नहीं होता है, इसलिऐ जितना जल्दी हो सके प्राथमिक उपचार की ओर बढ जाना चाहिये। ऋषिकेश पहुँच कर सबसे पहले मरहम-पट्टी कराई, पेनकिलर का इंजेक्शन लगवाया और पंक्चर वाले के पास बाईक को छोङा। मैंने पाया कि पिछले टायर से एयर-वॉल्व गायब थी। अब मामला समझ में आया। इस दुर्घटना की जङें फकोट में थी जब सुबह वापसी के दौरान मैंने वहां हवा भरवाई थी। वहां पंक्चर वाले नें ज्यादा हवा भर दी थी और टायर में भरी गई अधिक हवा की ओर मैंने भी ध्यान नहीं दिया। बाईक कुछ समय तक ठीक चलती रही पर बाद में उस मोङ पर जब एक कोण पर यह ज्यादा टेढी हो गई तो एयर-वॉल्व पर प्रेशर बढ गया और वॉल्व उङ गई। परिणाम टायर एकदम से फुस्स हो गया। तो अगली पर जब आप अपने ट्यूबलैस टायरों पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करें तो कृपया इस बात को ध्यान में रखें। बंधुओं की सुरक्षा को ध्यान में रखकर ही इस दुर्घटना को इतना खोलकर लिखा है।
इसके बाद आखिरी दिक्कत आई बङौत में जब कल्लू महाराज हमसे बिछङ गऐ और करीब एक घंटे का वक्त जाया होने के बाद हमसे मिले। घर पहुँचने के बाद जब हमसे कुशल-मंगल पूछा गया तो उन्हें कुछ नहीं बताया गया। हालांकि अगले दिन ही कलई खुल गई क्योंकि काम बताऐ जाने लगे जबकि शरीर बुरी तरह से अकङा हुआ था।
नरेन्द्रनगर के पास |
भगौरी गांव में नेगी साहब के होटल पर सुँदर |
होटल में कमरे के सामने का सीन |
भगौरी गांव के खेत |
एक अन्य बस्ती की ओर ट्रेकिंग |
ठीक पीछे पीली इमारत नेगी साहब का होटल। उससे नीचे भगौरी गांव है। |
पेङ पर लगे कच्चे केले। ये काफी हैं यहां। |
भगौरी गांव में झरने पर |
क्र.
|
मद
|
खर्चा
(रूपऐ में)
|
पहला दिन
|
||
1
|
बहादुरगढ
से बाईकों
में पैट्रोल
|
1200+900
|
2
|
बङौत
में चाय
|
24
|
3
|
मंगलौर
के पास खाना
|
110
|
4
|
ज्वालापुर
में चाय
|
21
|
5
|
ज्वालापुर
में कमरा
|
75
|
6
|
ज्वालापुर
में खाना
|
210
|
दुसरा दिन
|
||
7
|
ज्वालापुर
में सुबह चाय
|
30
|
8
|
भगौरी
गांव में
खाना
|
90
|
9
|
पुलिस
वाले को
|
500
|
10
|
भगौरी
गांव में
कमरा
|
300
|
11
|
भगौरी
गांव में रात
का खाना
|
110
|
तीसरा दिन
|
||
12
|
भगौरी
गांव में चाय
|
15
|
13
|
ऋषिकेश
में फर्स्ट
एड और ट्यूब
|
300
|
14
|
हरिद्वार
में खाना और
प्रसाद
|
150
|
15
|
हरिद्वार
में पैट्रोल
|
400
|
16
|
गौरीपुल
पर चाय
|
30
|
कुल खर्च
|
4465 रूपऐ
|