इस कङी में पढिऐ राजस्थान के भुतहा समझे जाने वाले भानगढ किले का यात्रा-वृतांत
18 जुलाई 2015 यानि शनिवार के दिन मैं, सुंदर और कल्लू बारिश में भीगते हुऐ खेतों की ओर निकल गऐ। कुछ देर इधर-उधर की बातें हुईं। फिर मैं कहने लगा कि यार पंजों में बङी बेचैनी महसुस हो रही है। बहुत दिनों से कहीं घुमने का कार्यक्रम नहीं बना है। चलो कहीं चलते हैं। हालांकि सुंदर जुन में ही पत्नी और बच्चों के साथ मसूरी घूम कर आया था। अब फिर से कहीं चलने की बात उठी तो पठ्ठा फटाक से फिर तैयार हो गया। कल्लू की हमेशा से आदत रही है कि जब भी कहीं घुमने चलने की बात होती है तो बंदा ऐसे रिएक्ट करता है जैसे केवल घुमक्कङी के लिऐ ही उसका जन्म हुआ है। कहता है – अरै यार, ये भी कोई पुछने की बात है। कभी भी चलो। हालांकि इस कभी भी चलने का मतलब होता है कि कभी भी मत चलो। एक बार जोश से भर जाने के बाद जल्द ही उसकी हवा निकल जाती है और जैसे-जैसे वक्त नजदीक आने लगता है, टालमटोल के उसके नऐ-नऐ बहाने निकलने लगते हैं। कल्लू महाराज पक्के सरकारी नौकर हैं। नौकरी पर कम ही जाते हैं। लेकिन जब हम कहीं घुमने का कार्यक्रम बना रहे हों तब तो उन्हें नौकरी पर जाना ही जाना होता है, अन्यथा देश की व्यवसथा खतरे में पङ सकती है। सुंदर की छुट्टी मंगलवार की होती है। उसकी ड्यूटी का कुछ ऐसा चल रहा है कि इसी एक दिन से ज्यादा छुट्टी वो कर नहीं सकता। उसका ड्यूटी-टाईम है दोपहर एक बजे से रात दस बजे तक। मैं मोटरसाईकिल से जाना चाहता था और नाईट-ड्राईविंग भी नहीं करना चाहता था। तो इस प्रकार हमारे पास मंगलवार (21-07-2015) का पुरा दिन और बुधवार का आधा दिन था। बुधवार दोपहर तक हर हाल में सुंदर को ड्यूटी पर पहुँचना था।
प्लान
प्लान
अब उपलब्ध समय को देखते हुऐ सोचा जाने लगा कि कहां जाना चाहिऐ। कई दिन से भानगढ का किला मेरे दिमाग में घुसा हुआ था। उसे बाहर निकाला और तुरंत उस पर मोहर लगाई। अब बारी थी योजना का ख़ाका खींचने की। भानगढ राजस्थान के अलवर जिले में सरिस्का बाघ अभ्यारण्य के अंतिम छोर पर है। दिल्ली से भानगढ पहुँचने के दो-तीन मुख्य रास्ते हैं।
- एक दिल्ली से राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या आठ से बरास्ता-ए-रेवाङी, नीमराना होते हुऐ मनोहरपुर तक। मनोहरपुर से मार्ग संख्या 11 द्वारा रामजीपुरा के पास राजकीय मार्ग संख्या 55 से गोला का बास तक। (लगभग 285 किलोमीटर)
- दुसरा मार्ग है दिल्ली से गुङगांव, धारुहेङा, टपूकङा, तिजारा, अलवर, राजगढ, टहला होते हुऐ गोला का बास तक। (लगभग 270 किलोमीटर)
- तीसरा मार्ग जो मैंने शार्टकट्स लगा लगा कर अपनाया वो है रेवाङी, अलवर, उमरैन, थानागाजी होते हुऐ गोला का बास तक। (लगभग 245 किलोमीटर)। चूंकि आते वक्त मैं राजगढ, टहला से होकर आया था, इसलिऐ किलोमीटर बढ गऐ और कुल तय दुरी साढे पाँच सौ किलोमीटर के लगभग पहुँच गई।
गोला का बास एक जगह का नाम है। इसे आप भानगढ के लिऐ बेस कैंप के रुप में समझ लीजिऐ। गोला का बास से भानगढ की दुरी दो-ढाई किलोमीटर ही है।
इस तीसरे रास्ते में अलवर के बाद काफी दुर तक सरिस्का बाघ अभ्यारण्य के बाहरी छोर से भी गुजरना होता है। कुछ रास्ता सरिस्का के जंगलों में से भी गुजरता है जहां आपको कुछ वन्य प्राणी भी अवश्य दिख जायेंगे। यह मार्ग अन्य रास्तों के मुकाबले छोटा पङता है तिस पर भी मैंने कुछ शार्टकट्स लगा कर इसे और अधिक छोटा बनाया। यात्रा-मार्ग का पूरा विवरण इस यात्रा-वृतांत के अंत में दिया भी गया है।
रेवाङी में एक मित्र रहते हैं- सोनू यादव। जब उन्हें अपनी भानगढ-यात्रा के बारे में बताया तो आदेश हो गया कि काफी दिनों से मिले नहीं हैं, इसलिऐ रात्रि-पङाव हर हाल में रेवाङी में ही करना है। तय हुआ कि सवेरे मुंह अंधेरे ही घर से निकल पङेंगें। दोपहर तक भानगढ पहुँच जाऐंगें। चार-पाँच बजे वहां से निकलकर अंधेरा होते होते रेवाङी आ पहुँचेंगें। अगले दिन देर से उठेंगें और दोपहर को सुंदर को ड्यूटी पर छोङता हुआ मैं घर आ जाउंगा।
यात्रा-प्रस्थान
- एक दिल्ली से राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या आठ से बरास्ता-ए-रेवाङी, नीमराना होते हुऐ मनोहरपुर तक। मनोहरपुर से मार्ग संख्या 11 द्वारा रामजीपुरा के पास राजकीय मार्ग संख्या 55 से गोला का बास तक। (लगभग 285 किलोमीटर)
- दुसरा मार्ग है दिल्ली से गुङगांव, धारुहेङा, टपूकङा, तिजारा, अलवर, राजगढ, टहला होते हुऐ गोला का बास तक। (लगभग 270 किलोमीटर)
- तीसरा मार्ग जो मैंने शार्टकट्स लगा लगा कर अपनाया वो है रेवाङी, अलवर, उमरैन, थानागाजी होते हुऐ गोला का बास तक। (लगभग 245 किलोमीटर)। चूंकि आते वक्त मैं राजगढ, टहला से होकर आया था, इसलिऐ किलोमीटर बढ गऐ और कुल तय दुरी साढे पाँच सौ किलोमीटर के लगभग पहुँच गई।
गोला का बास एक जगह का नाम है। इसे आप भानगढ के लिऐ बेस कैंप के रुप में समझ लीजिऐ। गोला का बास से भानगढ की दुरी दो-ढाई किलोमीटर ही है।
इस तीसरे रास्ते में अलवर के बाद काफी दुर तक सरिस्का बाघ अभ्यारण्य के बाहरी छोर से भी गुजरना होता है। कुछ रास्ता सरिस्का के जंगलों में से भी गुजरता है जहां आपको कुछ वन्य प्राणी भी अवश्य दिख जायेंगे। यह मार्ग अन्य रास्तों के मुकाबले छोटा पङता है तिस पर भी मैंने कुछ शार्टकट्स लगा कर इसे और अधिक छोटा बनाया। यात्रा-मार्ग का पूरा विवरण इस यात्रा-वृतांत के अंत में दिया भी गया है।
रेवाङी में एक मित्र रहते हैं- सोनू यादव। जब उन्हें अपनी भानगढ-यात्रा के बारे में बताया तो आदेश हो गया कि काफी दिनों से मिले नहीं हैं, इसलिऐ रात्रि-पङाव हर हाल में रेवाङी में ही करना है। तय हुआ कि सवेरे मुंह अंधेरे ही घर से निकल पङेंगें। दोपहर तक भानगढ पहुँच जाऐंगें। चार-पाँच बजे वहां से निकलकर अंधेरा होते होते रेवाङी आ पहुँचेंगें। अगले दिन देर से उठेंगें और दोपहर को सुंदर को ड्यूटी पर छोङता हुआ मैं घर आ जाउंगा।
यात्रा-प्रस्थान
अक्सर मेरे साथ होता ये है कि कहीं घुमने जाने का कार्यक्रम बनने पर रातों की नींद खत्म हो जाती है। तय दिन से पहले वाली रात तो उत्तेजना के मारे नींद आती ही नहीं। मुश्किल से दो-तीन घंटे सो पाता हुँ। मंगलवार सुबह साढे तीन बजे का वक्त चलने के लिऐ मुकर्रर था और मेरी आंख खुल गई दो बजे। बारह बजे के आस-पास सोया था और दो घंटे में उठ गया। बीस मिनट और पङा रहा पर बेचैनी लगातार बढ रही थी। सोचा सुंदर को फोन कर के जगा देता हुँ। थोङा जल्दी निकल लेगें। दो बार फोन किया भी पर उसने नहीं उठाया। सोचा कोई बात नहीं, नहा लेता हूँ। फिर फोन करुंगा। नहा-धोकर फोन किया फिर भी नहीं उठाया। फिर मैं नहीं रुका और लगातार अस्सी से ज्यादा फोन किऐ। हद हो गई यार! कोई कितना सोतङु हो सकता है? क्या इसे बिल्कुल फोन की घंटी सुनाई ना देती? ऐसे तो इसके घर आराम से डाका डाला जा सकता है। बंदा सोया हुआ है कि मरा पङा है? हैरत तो ये है कि पत्नी और बच्चों की आँख भी नहीं खुली! कुंभकर्ण के इन महान वशंजों को कोटि-कोटि प्रणाम ! ! !
आखिरी बार समझ कर फोन फिर से मिलाया। अबके उठ गया। उठते ही पचास गालियां तो फोन पर ही उसे सुना दीं और कहा कि बगैर मुंह धोऐ फटाफट आजा। वो आया और हम एक घंटा विंलब से चले। बहादुरगढ में पैट्रोल-पंपों की हङताल थी। दिल्ली के टीकरी बार्डर से जब तक पैट्रोल भरवा कर चले तो साढे पाँच बजने को थे। दिन भी निकलने को था।
दिल्ली से रोहतक के रास्ते में टीकरी बार्डर पङता है। हमें दिल्ली नहीं जाना था बल्कि बहादुरगढ से झज्जर के रास्ते रेवाङी पहँचना था। तो बाईक में तेल भरवा कर हम टीकरी से वापिस आऐ और बहादुरगढ के बाई-पास से होते हुऐ झज्जर को निकल गऐ। बहादुरगढ से झज्जर की दुरी है करीब 33 किलोमीटर। सङक बहुत बढिया बनी है। बीच में कुछ गांव भी आते हैं जिनमें सङक पर गति अवरोधक भी बने हुऐ हैं। झज्जर से रेवाङी जाने के लिऐ राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 71 पर चढ गऐ। इस रोङ को झज्जर शहर के बाहर से निकाला गया है। इस लिऐ शहर की भीङ आङे नहीं आती। भई वाह! क्या सङक है ये। करीब साढे पाँच सौ किलोमीटर के अपने भानगढ के सफ़र में ऐसा रोङ कहीं नहीं मिला। कहीं कोई स्पीड-ब्रेकर नहीं, कहीं कोई गड्ढा नहीं। मैं आमतौर पर मोटरसाईकिल को सामान्य गति से ज्यादा नहीं भगाता। लेकिन 55 किलोमीटर की इस ऐशगाह ने झज्जर से रेवाङी तक पौना घंटा भी नही लगने दिया। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 71 रेवाङी शहर के बाईपास के रुप में भी काम करता है और सीधा राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 08 पर जाकर मिलता है। इन दोनों राष्ट्रीय राजमार्गों के मिलन बिंदु को एन.एच. 71 तिराहा भी कहते हैं। रेवाङी से अलवर जाने के लिऐ के लिऐ हाईवे का इस्तेमाल करने की बजाय इसी तिराहे से करीब पाँच किलोमीटर एन.एच. 08 पर चलकर एक शार्टकट “बोलनी” की तरफ लगाया जा सकता है। इस तरह आप 25 किलोमीटर की बचत कर सकते हैं। यहां मैंने 30 किलोमीटर से भी ज्यादा की बचत करी। कैसे? ये थोङा “ट्रिकी” है। आप भी कर सकते हैं। बस हाईवे के फर्राटेदार रोङ का मोह छोङना पङेगा। वैसे ये शार्टकट मार्ग भी कोई बुरा नहीं है। बहुत अच्छा डबल रोङ बना है।
राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 08 पर एन.एच. 71 तिराहे के ठीक सामने एक फ्लाई-ओवर है। इसे पार कीजिऐ। इसके बाद जब दुसरा फ्लाई-ओवर आऐ तो इस पर नहीं चढना है। बल्कि इसके नीचे से बाईं ओर सांपली गांव की ओर मुङना है। सांपली गांव के बाहर से एक सङक पीथनवास गांव की ओर गई है। इसी सङक पर चलते हुऐ पीथनवास तक जाऐं और फिर वहां से “बोलनी”। इस तरह एन.एच. 71 तिराहे से बोलनी की दुरी बमुश्किल पाँच किलोमीटर रह जाती है जोकि परंपरागत रास्ते से करीब बारह किलोमीटर पङती है। बोलनी से थोङा आगे ही राजस्थान शुरु हो जाता है। यहां से दस किलोमीटर दुर आता है – कोटकासिम। कोटकासिम राजस्थान के अलवर जिले की तहसील भी है। इसके बाद आते हैं घिकाका, पुर, डायका, नया-गांव आदि और फिर राजस्थान के अलवर जिले की एक और तहसील किशनगढ बास। पुर गांव से अरावली की पहली झलक भी मिलती है। पुर से नया-गांव तक सङक कुछ खराब भी है। किशनगढ बास से अलवर की दुरी है 37 किलोमीटर। किशनगढ बास से राजकीय राजमार्ग संख्या 25 पर चलते हुऐ बाम्बोरा, घासौली, चिकानी से होकर अलवर जाते हैं। मार्ग में पहाङों के बढिया नजारे भी मिलते हैं। असल में पुर गांव से ही अरावली के पहाङ साथ हो लेते हैं जो धुर भानगढ तक साथ साथ ही चलते हैं। अलवर से भानगढ के दो रास्ते बनते हैं। लेकिन जैसा कि मैंने उपर बताया कि उस रास्ते का प्रयोग मैंने नही किया। यहां मैंने फिर से शार्टकट लगाया और राजगढ, टहला वाले रोङ की बजाय उमरैन, थानागाजी वाले रोङ को पकङा। इस रास्ते से सङक तो बहुत अच्छी नहीं है लेकिन जंगल और पहाङ के बढिया नजारे देखने को मिलते हैं। सरिस्का वन्य प्राणी अभ्यारण्य से होकर जाने का मौका भी मिलता है। थानागाजी पहुँचे। थानागाजी से भी भानगढ के दो रास्ते बनते हैं। यहां मैंने फिर से शार्टकट लगाया और गुढा, बामनवास, अजबगढ होते हुऐ गोला का बास पहुँचा। जैसा कि मैंने पहले बताया गोला का बास को आप भानगढ के लिऐ बेस कैंप के रुप में समझ सकते हैं। यह जयपुर-अलवर मुख्य सङक मार्ग पर जयपुर से करीब 80 किलोमीटर दुर है। इसका नजदीकी रेलवे स्टेशन है दौसा। दौसा से गोला का बास की दुरी करीब 25 किलोमीटर है जहां से आप बस द्वारा यहां पहुँच सकते हैं। गोला का बास से भानगढ किले की दुरी है लगभग ढाई किलोमीटर।
भानगढ प्रवेश
आखिरी बार समझ कर फोन फिर से मिलाया। अबके उठ गया। उठते ही पचास गालियां तो फोन पर ही उसे सुना दीं और कहा कि बगैर मुंह धोऐ फटाफट आजा। वो आया और हम एक घंटा विंलब से चले। बहादुरगढ में पैट्रोल-पंपों की हङताल थी। दिल्ली के टीकरी बार्डर से जब तक पैट्रोल भरवा कर चले तो साढे पाँच बजने को थे। दिन भी निकलने को था।
दिल्ली से रोहतक के रास्ते में टीकरी बार्डर पङता है। हमें दिल्ली नहीं जाना था बल्कि बहादुरगढ से झज्जर के रास्ते रेवाङी पहँचना था। तो बाईक में तेल भरवा कर हम टीकरी से वापिस आऐ और बहादुरगढ के बाई-पास से होते हुऐ झज्जर को निकल गऐ। बहादुरगढ से झज्जर की दुरी है करीब 33 किलोमीटर। सङक बहुत बढिया बनी है। बीच में कुछ गांव भी आते हैं जिनमें सङक पर गति अवरोधक भी बने हुऐ हैं। झज्जर से रेवाङी जाने के लिऐ राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 71 पर चढ गऐ। इस रोङ को झज्जर शहर के बाहर से निकाला गया है। इस लिऐ शहर की भीङ आङे नहीं आती। भई वाह! क्या सङक है ये। करीब साढे पाँच सौ किलोमीटर के अपने भानगढ के सफ़र में ऐसा रोङ कहीं नहीं मिला। कहीं कोई स्पीड-ब्रेकर नहीं, कहीं कोई गड्ढा नहीं। मैं आमतौर पर मोटरसाईकिल को सामान्य गति से ज्यादा नहीं भगाता। लेकिन 55 किलोमीटर की इस ऐशगाह ने झज्जर से रेवाङी तक पौना घंटा भी नही लगने दिया। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 71 रेवाङी शहर के बाईपास के रुप में भी काम करता है और सीधा राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 08 पर जाकर मिलता है। इन दोनों राष्ट्रीय राजमार्गों के मिलन बिंदु को एन.एच. 71 तिराहा भी कहते हैं। रेवाङी से अलवर जाने के लिऐ के लिऐ हाईवे का इस्तेमाल करने की बजाय इसी तिराहे से करीब पाँच किलोमीटर एन.एच. 08 पर चलकर एक शार्टकट “बोलनी” की तरफ लगाया जा सकता है। इस तरह आप 25 किलोमीटर की बचत कर सकते हैं। यहां मैंने 30 किलोमीटर से भी ज्यादा की बचत करी। कैसे? ये थोङा “ट्रिकी” है। आप भी कर सकते हैं। बस हाईवे के फर्राटेदार रोङ का मोह छोङना पङेगा। वैसे ये शार्टकट मार्ग भी कोई बुरा नहीं है। बहुत अच्छा डबल रोङ बना है।
राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 08 पर एन.एच. 71 तिराहे के ठीक सामने एक फ्लाई-ओवर है। इसे पार कीजिऐ। इसके बाद जब दुसरा फ्लाई-ओवर आऐ तो इस पर नहीं चढना है। बल्कि इसके नीचे से बाईं ओर सांपली गांव की ओर मुङना है। सांपली गांव के बाहर से एक सङक पीथनवास गांव की ओर गई है। इसी सङक पर चलते हुऐ पीथनवास तक जाऐं और फिर वहां से “बोलनी”। इस तरह एन.एच. 71 तिराहे से बोलनी की दुरी बमुश्किल पाँच किलोमीटर रह जाती है जोकि परंपरागत रास्ते से करीब बारह किलोमीटर पङती है। बोलनी से थोङा आगे ही राजस्थान शुरु हो जाता है। यहां से दस किलोमीटर दुर आता है – कोटकासिम। कोटकासिम राजस्थान के अलवर जिले की तहसील भी है। इसके बाद आते हैं घिकाका, पुर, डायका, नया-गांव आदि और फिर राजस्थान के अलवर जिले की एक और तहसील किशनगढ बास। पुर गांव से अरावली की पहली झलक भी मिलती है। पुर से नया-गांव तक सङक कुछ खराब भी है। किशनगढ बास से अलवर की दुरी है 37 किलोमीटर। किशनगढ बास से राजकीय राजमार्ग संख्या 25 पर चलते हुऐ बाम्बोरा, घासौली, चिकानी से होकर अलवर जाते हैं। मार्ग में पहाङों के बढिया नजारे भी मिलते हैं। असल में पुर गांव से ही अरावली के पहाङ साथ हो लेते हैं जो धुर भानगढ तक साथ साथ ही चलते हैं। अलवर से भानगढ के दो रास्ते बनते हैं। लेकिन जैसा कि मैंने उपर बताया कि उस रास्ते का प्रयोग मैंने नही किया। यहां मैंने फिर से शार्टकट लगाया और राजगढ, टहला वाले रोङ की बजाय उमरैन, थानागाजी वाले रोङ को पकङा। इस रास्ते से सङक तो बहुत अच्छी नहीं है लेकिन जंगल और पहाङ के बढिया नजारे देखने को मिलते हैं। सरिस्का वन्य प्राणी अभ्यारण्य से होकर जाने का मौका भी मिलता है। थानागाजी पहुँचे। थानागाजी से भी भानगढ के दो रास्ते बनते हैं। यहां मैंने फिर से शार्टकट लगाया और गुढा, बामनवास, अजबगढ होते हुऐ गोला का बास पहुँचा। जैसा कि मैंने पहले बताया गोला का बास को आप भानगढ के लिऐ बेस कैंप के रुप में समझ सकते हैं। यह जयपुर-अलवर मुख्य सङक मार्ग पर जयपुर से करीब 80 किलोमीटर दुर है। इसका नजदीकी रेलवे स्टेशन है दौसा। दौसा से गोला का बास की दुरी करीब 25 किलोमीटर है जहां से आप बस द्वारा यहां पहुँच सकते हैं। गोला का बास से भानगढ किले की दुरी है लगभग ढाई किलोमीटर।
भानगढ प्रवेश
जब हम भानगढ पहुँचे तो साढे बारह बज गऐ थे। किले के बाहर अपनी मोटरसाईकिल लगाई और अंदर जा घुसे। ना ही कोई पार्किंग शुल्क लगा ना ही प्रवेश शुल्क। अंदर घुसते ही दाईं ओर हनुमान मन्दिर है और सामने भानगढ किले का नक्शा। आगे चलने पर आते हैं दुकानों के भग्नावशेष। इन अवशेषों के बीच से ही रास्ता बनाया गया है। इन्हीं अवशेषों में नर्तकियों की हवेली नामक एक दोमंजिला इमारत के खंडहर भी हैं। बङ के पेङों का यहां बङा वर्चस्व है। काफी प्राचीन पेङ हैं ये। इन बरगदों की लटकती हुई जङें अब खुद एक स्वतंत्र वृक्ष बन जाना चाहती है। एक बार कोई चीज इनके संपर्क में आ गई तो उसे बुरी तरह कब्जा लेते हैं। किले के खंडहरों और चबूतरों को इन्होंने बुरी तरह अपने आगोश में जकङ रखा है। यहां तक कि आस-पास के खजुर के वृक्षों को भी बख्शा नहीं गया है। इसके बाद आगे बढते हैं और एक द्वार पार करके महल और मन्दिरो वाले मुख्य परिसर में पहुँच जाते हैं। यहां बाऐं हाथ को है सोमेश्वर महादेव मन्दिर और दाऐं हाथ को है गोपीनाथ मन्दिर। सामने महल के भग्नावशेष हैं।
भानगढ का इतिहास
आमेर के राजा हुऐ थे- भगवंत दास। ये राजा भारमल के वंशज थे। इस राजवंश की एक कन्या का विवाह मुगल खानदान में भी किया गया बताते हैं। उन्होंने सोलहवीं शती में इस किले का निर्माण करवाया था। राजा भगवंत दास के एक पुत्र थे- मानसिंह। मानसिंह मुगल शासक अकबर के दरबारी नवरत्नों में शामिल थे। इन्ही राजा मानसिंह के भाई माधोसिंह ने बाद में इस किले को अपना ठिकाना बना लिया था। माधोसिंह के तीन वंशजों में से एक छत्तर सिंह बाद में भानगढ़ के मालिक बन बैठे। छत्तर सिंह का पुत्र अजब सिंह व पौत्र हरीसिंह भी भानगढ़ में ही रहे। अजब सिंह ने बाद में अपने नाम पर एक कस्बा अजबगढ़ बसाया था। यह अपने खंडहरों के साथ आज भी आबाद है और भानगढ़ से 15 किलोमीटर दूर है। हरीसिंह के पुत्रों ने मुगल शासक औरंग़ज़ेब के समय में मुस्लिम धर्म अपना लिया था। पुरस्कार स्वरुप उन्हें भानगढ़ सौंप दिया गया। बाद में राजा सवाई जयसिंह ने उन्हें मौत के घाट उतारकर भानगढ़ पर अपना कब्जा कर लिया।
भानगढ की कहानी
एक प्राचीन जनश्रुति के अनुसार भानगढ में एक सुंदर रुपवती राज-स्त्री हुई जिनका नाम रत्नावती था। एक बार जब रत्नावती किले के बाजार में अपने दल-बल के साथ उपस्थित थीं तो एक तात्रिंक की नजर उन पर पङी। तात्रिंक उन पर मोहित हो गया और येन-केन-प्रकारेण उन्हें अपना बनाने के उपाय करने लगा। किसी तरह एक द्रव की शीशी, जिसमें शायद कोई इत्र या तेल था, को उन तक पहुँचा दिया। कहते हैं कि इस शीशी के द्रव में ऐसे मंत्र फूंक दिऐ गऐ थे कि जो भी कोई उसका प्रयोग करता वह तात्रिंक के हुक्म का गुलाम हो जाता। सम्मोहित होकर तात्रिंक की इच्छानुसार की व्यवहार भी करता। जब वह शीशी रत्नावती के पास पहुँची तो अपने सत के बल पर उन्होंनें इसे ताङ लिया और प्रतिकार स्वरुप एक बङी शिला पर इसके द्रव को उंङेल दिया। जैसा कि जादू होना ही था, शिला सम्मोहित होकर तात्रिंक की ओर उङ चली। तात्रिंक ने जब शिला को अपनी ओर आता देखा तो उससे बचने के लिऐ के लिऐ इधर-उधर भागने लगा। लेकिन चूंकि शिला सम्मोहित थी, तात्रिंक उससे बच ना सका और अंततः कुचल कर मारा गया। तात्रिंक जान से तो गया पर मरते-मरते भानगढ को शाप दे गया कि अब यह कभी भी आबाद नहीं हो सकेगा और इसकी रातें हमेशा वीरान रहेंगीं। कहते हैं कि उसका शाप फलीभूत हुआ और रात रात में ही भानगढ खंहहर बन गया। कहा जाता है कि आज भी रत्नावती और भानगढ के अन्य निवासीयों की आत्माऐं यहां घुमती रहती हैं। आज भी कोई इंसान किले के अंदर रात नहीं गुजार सकता है।
भानगढ की वर्तमान अवस्था पर मेरे विचार
ऐसा नहीं है कि मुझे पराशक्तियों पर विश्वास नहीं है। मेरे विचार से तो पृथ्वी पर सब कुछ मौजुद है। लेकिन किसी शाप के कारण के कारण भानगढ की ऐसी दशा हुई होगी, इस पर शक और तर्क-वितर्क करने के माकूल कारण उपलब्ध हैं। पहला कारण तो इस प्रचलित किवंदती में ही शामिल है। तात्रिंक एक दुरात्मा था जिसने एक नारी पर बुरी नजर डाली। यही नहीं उस नारी पर अपना अधिकार जमाने के लिऐ गलत तरीका भी अपनाया। क्या ऐसे दुरात्मा का शाप फलीभूत हो सकता है, वो भी इतनी जल्दी और इतने लंबे समय तक? आखिर ईश्वरीय व्यवसथा भी कोई चीज होती है। ऐसे तो फिर आजकल के सिरफिरे आशिक और मवाली भी शाप देना शुरु कर देंगें।
दुसरा कारण है भानगढ के किले का भूगोल। मुख्य किला परिसर में सबसे अधिक दुर्दशा महल की हुई है। यहां मन्दिर भी हैं। इनमें से एक मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है। शिव मन्दिर को भी थोङा सा नुकसान हुआ है। जब भी कभी भानगढ जाना हो तो गौर से देखिऐगा यहां के भूगोल को। खासतौर पर शिव मन्दिर एवं महल की ओर। शिव मन्दिर का बायां हिस्सा और महल के ठीक पीछे वाला हिस्सा उंचे-उंचे पहाङो से बिल्कुल सटे हुऐ हैं। यह खूब संभव है कि भानगढ पर किसी भूकंप की मार पङी हो और इन पहाङो से बङे बङे पत्थर आ गिरे हों। शिव मन्दिर की मुंडेर और छज्जा उसी तरफ से टुटे हुऐ हैं जिस तरफ पहाङ है। इस मन्दिर के पास वाली बावली बिल्कुल ठीक है। उसे भी कोई नुकसान नहीं हुआ है। महल को देखने पर मेरी भूकंप वाली थ्योरी और भी पुख्ता हो जाती है। यह तो बिल्कुल ही उंचे पहाङो के साये में बना हुआ है। महल की सबसे उपर वाली मंजिल पर जाईये और इसकी पछीत के पहाङ की ओर देखिऐ। गौर से देखते ही पत्थरों का ढीलापन नजर आ जाऐगा। ये पहाङ हिमालय की तरह ढीले तो नहीं है पर किसी बङे भूकंप में शर्तिया अपनी जगह छोङ सकते हैं। महल की उपरी मंजिल पर जो छतें बची हुई हैं वो पूरी तरह से ढही नहीं हैं बल्कि उनमें बङे-बङे छेद हो गऐ हैं ऐसा लगता है कि इन पर बङे-बङे पत्थर आ गिरे और इनमें धंस गऐ। जिससे ये छेद हो बन गऐ।
यहां के माहौल को देखकर एक ही रात में किले के खंडहर हो जाने की बात भी मेरे गले नहीं उतरी। किले को देखने आने वाली भीङ पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है। लोग पुरे किले परिसर में जहां मर्जी आऐ, जैसे मर्जी आऐ बेरोकटोक घुमते हैं। खंडित स्थलों के उपर चढ कर उछलकूद करते हैं, फोटो खिंचवाते हैं। खंडित दीवारों पर लङके अपनी नौजवान मोहब्बत के नाम गोदते हैं। राजस्थानी लङकों का एक झुंड तो हमारे सामने ही आया था। उन दुष्टों ने खूब शराब पी रखी थी और खूब हुङदंग मचा रखा था। जो पहले ही से खंडहर हो गया हो वो ऐसी बेधङक धमाचौकङी में कब तक खङा रहेगा। विदेशों में ये धारणा ऐसे ही नहीं बन गई कि हम भारतीय अपनी धरोहरों को लेकर संजीदा नहीं हैं। समय बीतने के साथ-साथ बाद में कहानियां तो बन ही जाती हैं कि भूतों ने बेङा गर्क कर दिया, शाप का प्रभाव है आदि आदि। वास्तव में बेङा गर्क तो हम जीवित भारतीयों का हुआ पङा है। खासतौर पर उस कथित नौजवान पीढी का जो या तो स्कूल जाती नहीं और अगर जाती भी है तो बस इतनी ही शिक्षित हो पाती है कि कुछ लिखना और अख़बार पढना सीख ले।
भूतों की बात भी जरा कठिन है विश्वास करने के लिऐ। क्यों? बताता हुँ। आप लोगों ने किसी इंसान में भूत आ जाने की घटनाऐं सुन रखी होंगीं। ऐसे स्थानों के बारे में भी सुन रखा होगा जहां ऐसे लोगों का इलाज किया जाता है और भूत बाहर निकाले जाते हैं। क्या आपने कभी ऐसी कोई जगह सुनी है जो पहले ही से भूतों के गढ के रुप में कुख्यात हो और शापित भी बताई जाती हो। भानगढ का किला ऐसी ही एक जगह है जो स्वयं भूतों के गढ के रुप में मशहूर है और शापित भी है। इसके बावजूद यहां पराशक्तियों से पीडित इंसानों का इलाज किया जाता है, भूत भगाऐ जाते हैं। ये काम होता है किले में मौजूद केवङे के जंगल के मुहाने पर। प्रत्येक मंगलवार और शनिवार को यह काम होता है। भानगढ में हम मंगलवार को उपस्थित थे और इन क्षणों के गवाह भी बने। इन क्षणों की वीडियो कवरेज भी मैंने फिल्माई थी जिसे आप नीचे देख सकते हैं। भानगढ भारतीय पुरातत्व विभाग की देखरेख में है और उसे इन लोगों से कोई मतलब ही नहीं है।
इसके बाद हम ज्यादा देर वहां नहीं रुके थे और सोमेश्वर महादेव के दर्शन करने चले गऐ थे। इस मन्दिर में एक शिवलिंग है। नन्दी बैल की प्रतिमा भी है, साथ ही एक प्रतिमा और भी है जो मुझे नहीं पता किस जीव की है। सोमेश्वर महादेव मन्दिर में ही एक सफाई कर्मी मिला। उसने हमें बताया कि यहां भूतों वाली कोई बात नहीं है। सब झूठ है। यह किला सरिस्का के जंगलों से ज्यादा दुर नहीं है और रात में जंगली जानवरों के आने का भय बना रहता है। इसीलिऐ रात में किसी को रुकने नहीं दिया जाता। रात के वक्त केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के दो जवानों की ड्यूटी भी लगाई गई है। इसके अलावा दो चौकीदार भी होते हैं। वे रात के दस बजे के आस-पास आते हैं और सवेरे छह बजे अपने कर्तव्य की इतिश्री करके चले जाते हैं। सफाई कर्मी ने हमें यह भी बताया कि वे लोग किले की चारदीवारी के भीतर ही हनुमान मन्दिर के साथ वाले कक्ष में रुकते हैं। करीब तीन बजे हम भानगढ किले से निकले तो थे घर के लिऐ पर अचानक ही प्लान बन गया झीलों की नगरी उदयपुर घुम कर आने का। इसके लिऐ सुंदर ने अपने ऑफिस फोन करके छुट्टी का भी जुगाङ कर लिया था। पर बाद में उसके इन्चार्ज का फोन आया और उसकी छुट्टी रद्द कर दी। धत तेरे की! मूड खराब हो गया। वापस घर की ओर मुङना पङा। हमारा रात में रेवाङी रुकने का प्रोग्राम तय था। उसे भी रद्द कर दिया और घर को लौट पङे। वापसी में टहला, राजगढ, अलवर वाला रुट पकङ लिया। वाकई टहला, राजगढ, अलवर वाली सङक बढिया बनी है। अजबगढ, थानागाजी वाली सङक तो इसके सामने कुछ भी नहीं है। रेवाङी पहुँचने के बाद जो मोटरसाईकिल भगाई है कि सवा घंटे में रेवाङी से बहादुरगढ तक पहुँच गऐ।
भानगढ का इतिहास
आमेर के राजा हुऐ थे- भगवंत दास। ये राजा भारमल के वंशज थे। इस राजवंश की एक कन्या का विवाह मुगल खानदान में भी किया गया बताते हैं। उन्होंने सोलहवीं शती में इस किले का निर्माण करवाया था। राजा भगवंत दास के एक पुत्र थे- मानसिंह। मानसिंह मुगल शासक अकबर के दरबारी नवरत्नों में शामिल थे। इन्ही राजा मानसिंह के भाई माधोसिंह ने बाद में इस किले को अपना ठिकाना बना लिया था। माधोसिंह के तीन वंशजों में से एक छत्तर सिंह बाद में भानगढ़ के मालिक बन बैठे। छत्तर सिंह का पुत्र अजब सिंह व पौत्र हरीसिंह भी भानगढ़ में ही रहे। अजब सिंह ने बाद में अपने नाम पर एक कस्बा अजबगढ़ बसाया था। यह अपने खंडहरों के साथ आज भी आबाद है और भानगढ़ से 15 किलोमीटर दूर है। हरीसिंह के पुत्रों ने मुगल शासक औरंग़ज़ेब के समय में मुस्लिम धर्म अपना लिया था। पुरस्कार स्वरुप उन्हें भानगढ़ सौंप दिया गया। बाद में राजा सवाई जयसिंह ने उन्हें मौत के घाट उतारकर भानगढ़ पर अपना कब्जा कर लिया।
भानगढ की कहानी
एक प्राचीन जनश्रुति के अनुसार भानगढ में एक सुंदर रुपवती राज-स्त्री हुई जिनका नाम रत्नावती था। एक बार जब रत्नावती किले के बाजार में अपने दल-बल के साथ उपस्थित थीं तो एक तात्रिंक की नजर उन पर पङी। तात्रिंक उन पर मोहित हो गया और येन-केन-प्रकारेण उन्हें अपना बनाने के उपाय करने लगा। किसी तरह एक द्रव की शीशी, जिसमें शायद कोई इत्र या तेल था, को उन तक पहुँचा दिया। कहते हैं कि इस शीशी के द्रव में ऐसे मंत्र फूंक दिऐ गऐ थे कि जो भी कोई उसका प्रयोग करता वह तात्रिंक के हुक्म का गुलाम हो जाता। सम्मोहित होकर तात्रिंक की इच्छानुसार की व्यवहार भी करता। जब वह शीशी रत्नावती के पास पहुँची तो अपने सत के बल पर उन्होंनें इसे ताङ लिया और प्रतिकार स्वरुप एक बङी शिला पर इसके द्रव को उंङेल दिया। जैसा कि जादू होना ही था, शिला सम्मोहित होकर तात्रिंक की ओर उङ चली। तात्रिंक ने जब शिला को अपनी ओर आता देखा तो उससे बचने के लिऐ के लिऐ इधर-उधर भागने लगा। लेकिन चूंकि शिला सम्मोहित थी, तात्रिंक उससे बच ना सका और अंततः कुचल कर मारा गया। तात्रिंक जान से तो गया पर मरते-मरते भानगढ को शाप दे गया कि अब यह कभी भी आबाद नहीं हो सकेगा और इसकी रातें हमेशा वीरान रहेंगीं। कहते हैं कि उसका शाप फलीभूत हुआ और रात रात में ही भानगढ खंहहर बन गया। कहा जाता है कि आज भी रत्नावती और भानगढ के अन्य निवासीयों की आत्माऐं यहां घुमती रहती हैं। आज भी कोई इंसान किले के अंदर रात नहीं गुजार सकता है।
भानगढ की वर्तमान अवस्था पर मेरे विचार
ऐसा नहीं है कि मुझे पराशक्तियों पर विश्वास नहीं है। मेरे विचार से तो पृथ्वी पर सब कुछ मौजुद है। लेकिन किसी शाप के कारण के कारण भानगढ की ऐसी दशा हुई होगी, इस पर शक और तर्क-वितर्क करने के माकूल कारण उपलब्ध हैं। पहला कारण तो इस प्रचलित किवंदती में ही शामिल है। तात्रिंक एक दुरात्मा था जिसने एक नारी पर बुरी नजर डाली। यही नहीं उस नारी पर अपना अधिकार जमाने के लिऐ गलत तरीका भी अपनाया। क्या ऐसे दुरात्मा का शाप फलीभूत हो सकता है, वो भी इतनी जल्दी और इतने लंबे समय तक? आखिर ईश्वरीय व्यवसथा भी कोई चीज होती है। ऐसे तो फिर आजकल के सिरफिरे आशिक और मवाली भी शाप देना शुरु कर देंगें।
दुसरा कारण है भानगढ के किले का भूगोल। मुख्य किला परिसर में सबसे अधिक दुर्दशा महल की हुई है। यहां मन्दिर भी हैं। इनमें से एक मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है। शिव मन्दिर को भी थोङा सा नुकसान हुआ है। जब भी कभी भानगढ जाना हो तो गौर से देखिऐगा यहां के भूगोल को। खासतौर पर शिव मन्दिर एवं महल की ओर। शिव मन्दिर का बायां हिस्सा और महल के ठीक पीछे वाला हिस्सा उंचे-उंचे पहाङो से बिल्कुल सटे हुऐ हैं। यह खूब संभव है कि भानगढ पर किसी भूकंप की मार पङी हो और इन पहाङो से बङे बङे पत्थर आ गिरे हों। शिव मन्दिर की मुंडेर और छज्जा उसी तरफ से टुटे हुऐ हैं जिस तरफ पहाङ है। इस मन्दिर के पास वाली बावली बिल्कुल ठीक है। उसे भी कोई नुकसान नहीं हुआ है। महल को देखने पर मेरी भूकंप वाली थ्योरी और भी पुख्ता हो जाती है। यह तो बिल्कुल ही उंचे पहाङो के साये में बना हुआ है। महल की सबसे उपर वाली मंजिल पर जाईये और इसकी पछीत के पहाङ की ओर देखिऐ। गौर से देखते ही पत्थरों का ढीलापन नजर आ जाऐगा। ये पहाङ हिमालय की तरह ढीले तो नहीं है पर किसी बङे भूकंप में शर्तिया अपनी जगह छोङ सकते हैं। महल की उपरी मंजिल पर जो छतें बची हुई हैं वो पूरी तरह से ढही नहीं हैं बल्कि उनमें बङे-बङे छेद हो गऐ हैं ऐसा लगता है कि इन पर बङे-बङे पत्थर आ गिरे और इनमें धंस गऐ। जिससे ये छेद हो बन गऐ।
यहां के माहौल को देखकर एक ही रात में किले के खंडहर हो जाने की बात भी मेरे गले नहीं उतरी। किले को देखने आने वाली भीङ पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है। लोग पुरे किले परिसर में जहां मर्जी आऐ, जैसे मर्जी आऐ बेरोकटोक घुमते हैं। खंडित स्थलों के उपर चढ कर उछलकूद करते हैं, फोटो खिंचवाते हैं। खंडित दीवारों पर लङके अपनी नौजवान मोहब्बत के नाम गोदते हैं। राजस्थानी लङकों का एक झुंड तो हमारे सामने ही आया था। उन दुष्टों ने खूब शराब पी रखी थी और खूब हुङदंग मचा रखा था। जो पहले ही से खंडहर हो गया हो वो ऐसी बेधङक धमाचौकङी में कब तक खङा रहेगा। विदेशों में ये धारणा ऐसे ही नहीं बन गई कि हम भारतीय अपनी धरोहरों को लेकर संजीदा नहीं हैं। समय बीतने के साथ-साथ बाद में कहानियां तो बन ही जाती हैं कि भूतों ने बेङा गर्क कर दिया, शाप का प्रभाव है आदि आदि। वास्तव में बेङा गर्क तो हम जीवित भारतीयों का हुआ पङा है। खासतौर पर उस कथित नौजवान पीढी का जो या तो स्कूल जाती नहीं और अगर जाती भी है तो बस इतनी ही शिक्षित हो पाती है कि कुछ लिखना और अख़बार पढना सीख ले।
भूतों की बात भी जरा कठिन है विश्वास करने के लिऐ। क्यों? बताता हुँ। आप लोगों ने किसी इंसान में भूत आ जाने की घटनाऐं सुन रखी होंगीं। ऐसे स्थानों के बारे में भी सुन रखा होगा जहां ऐसे लोगों का इलाज किया जाता है और भूत बाहर निकाले जाते हैं। क्या आपने कभी ऐसी कोई जगह सुनी है जो पहले ही से भूतों के गढ के रुप में कुख्यात हो और शापित भी बताई जाती हो। भानगढ का किला ऐसी ही एक जगह है जो स्वयं भूतों के गढ के रुप में मशहूर है और शापित भी है। इसके बावजूद यहां पराशक्तियों से पीडित इंसानों का इलाज किया जाता है, भूत भगाऐ जाते हैं। ये काम होता है किले में मौजूद केवङे के जंगल के मुहाने पर। प्रत्येक मंगलवार और शनिवार को यह काम होता है। भानगढ में हम मंगलवार को उपस्थित थे और इन क्षणों के गवाह भी बने। इन क्षणों की वीडियो कवरेज भी मैंने फिल्माई थी जिसे आप नीचे देख सकते हैं। भानगढ भारतीय पुरातत्व विभाग की देखरेख में है और उसे इन लोगों से कोई मतलब ही नहीं है।
इसके बाद हम ज्यादा देर वहां नहीं रुके थे और सोमेश्वर महादेव के दर्शन करने चले गऐ थे। इस मन्दिर में एक शिवलिंग है। नन्दी बैल की प्रतिमा भी है, साथ ही एक प्रतिमा और भी है जो मुझे नहीं पता किस जीव की है। सोमेश्वर महादेव मन्दिर में ही एक सफाई कर्मी मिला। उसने हमें बताया कि यहां भूतों वाली कोई बात नहीं है। सब झूठ है। यह किला सरिस्का के जंगलों से ज्यादा दुर नहीं है और रात में जंगली जानवरों के आने का भय बना रहता है। इसीलिऐ रात में किसी को रुकने नहीं दिया जाता। रात के वक्त केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के दो जवानों की ड्यूटी भी लगाई गई है। इसके अलावा दो चौकीदार भी होते हैं। वे रात के दस बजे के आस-पास आते हैं और सवेरे छह बजे अपने कर्तव्य की इतिश्री करके चले जाते हैं। सफाई कर्मी ने हमें यह भी बताया कि वे लोग किले की चारदीवारी के भीतर ही हनुमान मन्दिर के साथ वाले कक्ष में रुकते हैं। करीब तीन बजे हम भानगढ किले से निकले तो थे घर के लिऐ पर अचानक ही प्लान बन गया झीलों की नगरी उदयपुर घुम कर आने का। इसके लिऐ सुंदर ने अपने ऑफिस फोन करके छुट्टी का भी जुगाङ कर लिया था। पर बाद में उसके इन्चार्ज का फोन आया और उसकी छुट्टी रद्द कर दी। धत तेरे की! मूड खराब हो गया। वापस घर की ओर मुङना पङा। हमारा रात में रेवाङी रुकने का प्रोग्राम तय था। उसे भी रद्द कर दिया और घर को लौट पङे। वापसी में टहला, राजगढ, अलवर वाला रुट पकङ लिया। वाकई टहला, राजगढ, अलवर वाली सङक बढिया बनी है। अजबगढ, थानागाजी वाली सङक तो इसके सामने कुछ भी नहीं है। रेवाङी पहुँचने के बाद जो मोटरसाईकिल भगाई है कि सवा घंटे में रेवाङी से बहादुरगढ तक पहुँच गऐ।
मुंह अंधेरे यात्रा-प्रस्थान |
सफर के हमसफर - सुंदर और एक्स.सी.डी. बाईक |
एन.एच 71 पर रेवाङी-रोहतक रेल |
पुर गांव के पास अरावली के प्रथम दर्शन |
नया-गांव के पास लिया गया पैनोरमा |
सरिस्का वन्य प्राणी अभ्यारण्य का सरकारी रेस्ट हाऊस |
सरिस्का वन्य प्राणी अभ्यारण्य का प्रवेश स्थल |
भानगढ किले में प्रवेश करने पर किले के नक्शे के साथ घुमक्कङ जाट |
दुकानों के अवशेष |
नर्तकियों की हवेली |
बरगद के पेङ द्वारा कब्जाऐ गऐ अवशेष |
महल और मंदिरों वाले मुख्य परिसर के द्वार पर सुंदर जी। इससे आगे पीने का पानी उपलब्ध नहीं है। |
भानगढ का विवरण लेख |
दाऐं गोपीनाथ मंदिर और पीछे महल |
ठीक सामने महल है। उसके पीछे के उंचे पहाङ को देखिऐ। |
जहां से उपर वाला फोटो खींचा गया है, यह उसके ठीक नीचे का नजारा है। यही महल की उपरी मंजिल का मुख्य कक्ष भी है। दाऐं एक मात्र सुरक्षित छत वाले कमरे को रत्नावती का मंदिर बना दिया गया है। |
रत्नावती मंदिर के अंदर का सीन |
एक नजर पूरे किला परिसर पर |
उपर से दुसरी मंजिल के कक्ष |
उपर दिखाऐ गऐ कक्षों की छत का उखङा हुआ प्लास्टर। यहां चमगादङों की बीट की बहुत दुर्गंध फैली रहती है। |
बङे-बङे पत्थरों की चिनाई |
उस वक्त की गई चिनाई में प्रयुक्त लोहे का सरिया (गोले में) |
महल की सबसे उपरी मंजिल पर एक कक्ष में उकेरा गया चित्र। हवा और बारिश के थपेङों को आज भी बर्दाश्त कर रहा है। 500 साल बीतने पर भी कायम है। पर कितने और दिनों तक? |
आजकल के टुच्चे लोग देखिऐ इन कलाकृतियों को कैसे खराब कर रहे हैं। यह चित्र उपर वाले चित्र के अपोजिट वाले कक्ष में उकेरा गया है। इस पर गोदे गऐ कुछ आधुनिक अक्षर और खरोंच। |
बरगद का एक और चबूतरे पर कब्जे का उदाहरण |
बरगद की जङ से मुक्त करवाया गया एक खजुर का पेङ। जङ अब भी चिपकी हुई है। |
सोमेश्वर महादेव मन्दिर के पास स्थित बावली |
सोमेश्वर महादेव मन्दिर |
सोमेश्वर महादेव मन्दिर का टुटा हुआ छज्जा और मरम्मत की गई मुंडेर। यहां टुट-फुट केवल पहाङ की दिशा से ही हुई है। |
और अंत में एक उदाहरण जो आपको दिखाऐगा कि इस विरासत को कितनी गंभीरता से संभाला जा रहा है। पशुओं का स्वछंद विचरण। |
भानगढ
का यात्रा
व्यय
|
||
क्रम
सं.
|
मद
|
खर्च
(रुपऐ में)
|
1
|
टीकरी
बार्डर से
बाईक में
पैट्रोल
|
650
|
2
|
रेवाङी
एन.एच 71 पर
भुजिया
|
05
|
3
|
दोपहर
का खाना
|
70
|
4
|
गोला
का बास में
कोल्ड-ड्रिंक
व चिप्स
|
100
|
5
|
किशनगढ
बास में
कोल्ड-ड्रिंक
|
35
|
6
|
रेवाङी
से बाईक में
पैट्रोल
|
200
|
कुल
खर्चा
|
1060
रु.
|