प्रथम स्वछंद (साईकिल) यात्रा — भाग 'सात'

सितंबर 13, 2002 (आठवां दिन)

अगले रोज यानि तारीख़ को न जाने हमने कौन रास्ता पकड़ लिया कि कहाँ से निकले सो कुछ याद नहीं। सुबह को कुछ घंटे रुकी झमाझम बारिश बाद में बदस्तूर जारी रही। रात भर की बेचैनी अगले रोज़ दिन में इस कदर हावी हो गई कि चलना नामुमकिन सा लगने लगा। फिर भी पूरे दिन में दो तीन मील तो चले ही। इस दिन की अधिक स्मृतियाँ अब स्मरण-कोष में उपस्थित नहीं हैं। याद पडता है कि सांझ ढले हम मंडावली गांव में खडे़ हुए भीग रहे थे। वहां हलके अंधेरे में खडे खडे हम इधर उधर देख रहे थे। उस अवस्था में एक आदमी ने वहां हमें देख लिया और अपने घर ले गया। बाद में पता चला कि वह एक जाट था और मंडावली का सरपंच था। अधिक कुछ याद नहीं है, हां परंतु हमें सड़क से थोडा़ हटकर एक कमरे में ठहराया गया था। कदाचित् वह कमरा आगंतुकों के निमित्त बैठक के रूप में बनाया गया था। अच्छा भोजन भी मिला, सोने को अच्छा बिस्तर भी मिला। दाहा के बाद यह दूसरा मौका हुआ कि जब हमें किसी के घर में पनाह मिली। न केवल रात भले से कटी बल्कि भोजन और बिस्तर भी मिला।

उत्तर प्रदेश में साईकिल पर घुमक्कड़ी

सितंबर 14, 2002 (नवां दिन)

सवेरे जल्द निकले सो याद है, बुढाना गये, इसका भी ख्याल आता है। हमें बखूबी यह याद है कि बुढाना ही में हमने पक्की सलाह कर ली थी कि दाहा से होकर ही निकलना है। आते वक्त क्या खूब खातिर की थी उन लोगों ने, अब फिर से वहीं खाने की इच्छा लिए हम उन लोगों के घर जाना चाहते थे। पुरानी स्मृतियों के साथ यही दिक्कतें होती हैं। कुछ शीशे की तरह चमकतीं सदैव पटल पर अंकित रहती हैं, कुछ दूसरियों पर समय की धूल इस कदर चढ जाती है कि लाख जतन कर लें धुंधलाई ही रहती हैं। जिस दिन हम दोबारा दाहा पहुंचे उस रोज के अपराह्न बाद का एक-एक सीन किसी चलचित्र की मानिंद स्मृति पटल पर छायांकित है, हां मगर मध्याह्न पूर्व क्या हुआ, उसका कुछ ख्याल नहीं।

तो जब 14 सितंबर 2002 की उस दुपहरी को हम दाहा गांव के नजदीक लगे तो हमें पहला ख्याल आया कि हमें कुछ प्रसाद जैसा भी लेना चाहिए। किसी के घर में जाते हुए कुछ भेंटस्वरूप लेकर जाना आखिर शिष्टाचार का तकाजा होता है। खाली हाथ कैसे द्वार पर जा खडे़ हों? और फिर यह भी कि उस घर में यही कह कर पिछली दफा हम रुके थे कि हरिद्वार के तीर्थयात्री हैं। सो हमने दस रुपये के खील—मिसरी गांव ही से खरीद कर उसे हरिद्वार का प्रसाद-रुप दे दिया और विकास के घर जा पहुंचे। गृहस्वामी घर में नहीं था तो भी हमें कोई परेशानी न हुई। हमें जाते ही पहचान लिया गया। प्रसाद भेंट करने के बाद जब हमारे सामने भोजन की पेशकश आई तो हमने एक बार भी—शिष्टाचारवश ही—मना नहीं किया। तुरंत ही चुल्हा जला दिया गया और देसी घी के बडे़ बडे़ परांठे दही के साथ परोसे गये। उस समय हम युगों के भूखे मालूम पड़ते थे जोकि खाने को अधचबा ही सटासट पेट में भर लेना चाहते थे, जैसे ऊंट कई—कई दिनों की जरुरत का जल अपने कूबड़ में भर लेता है। भोजनोपरांत तक गृहस्वामी भी आ गया। सामान्य हालचाल पूछने के बाद वह पूछने लगे कि आज रात कहाँ ठहरोगे? हम अपने मुंह से कैसे कहते कि आप ही के यहाँ ठहरना चाहते हैं। संकोचवश मुख से शब्द निकलते न थे। हम एक—दूसरे को देख ही रहे थे कि यजमान ने कहा कि फलाने गांव पहुंचो। वहां मेरे एक जानकार हैं- संसारचंद। उनसे कहना कि मैनें भेजा है। तुम लोगों को रात रुकने-खाने की कोई दिक्कत न होगी। दाहा से वह अगला गांव कोई सत्रह या अठारह मील पर बताया गया और यह भी कहा गया कि सांझ ढले तक आराम से पहुँच जाओगे।

उत्तर प्रदेश में भयाक्रांत घुमक्कड़

और कुछ देर बाद औपचारिक विदा लेकर हम आगे के सफर पर निकल पड़े। अब कुछ देर चलकर एक भारी दुविधा यह आ गई कि हम गंतव्य का नाम भूल गये। कभी विचार आता कि बड़ौली जाना है तो कभी सरुरपुर का नाम दिमाग में आता। चूंकि सरुरपुर रास्ते में ही आने वाला था तो हमने मान लिया कि अवश्य हमें सरुरपुर ही जाना है। और जैसा कि सुनकर चले थे सांझ होते होते सरुरपुर पहुँच गये। अब यह पहला ही मौका पडा था—पूरी यात्रा भर में—कि हम जानते थे रात में कहाँ रुकना है। और तो और रात्रि भोजन के बारे में लगभग निश्चिंत ही थे, आखिर दाहा से परिचय की सिफारिश जो लिए हुए थे। गांव में इससे-उससे पूछते हम इच्छित मकान के सामने जा खडे हुए। आवाज लगाई। भीतर से कोई उत्तर नहीं आया। फिर से लगाईं, फिर भी कोई जवाब न आया। हो सकता है घर में कोई न हो, या हो, सुनाई न दे रहा हो। लगता है अंदर ही जाना पडेगा। जरा खटके के साथ बडे से लोहे के गेट से मैं भीतर दाखिल हुआ। मकान खूब बडा मालूम पडता था। अंदर घुसते ही ढेरों ढोर एक लंबे व कुछ चौड़े बरामदे में कतार से बंधे हुए थे। मनों बालू उन मवेशियों के नीचे पडा होगा। अनजान को देख गायों ने रंभाना चालू कर दिया और भैंसों की जुगाली बंद हो गई। मैं मना रहा था कि कोई कुत्ता न हो। इधर-उधर देखता गोबरों के बीच से मैं और आगे बढा। बरामदे के बाद उपर को जातीं चौड़ी सीढ़ियों की बगल से एक संकरा रास्ता मकान के और अंदर जा रहा था। इस पर आगे बढते हुए क्या ख्याल पडता है कि जैसे किसी तिलिस्म की ओर बढा जा रहा हूं। दीवारों पर दोनो ओर रस्सीयां, छीक्के और न जाने जाने क्या लटका हुआ था। सुरंगनुमा उस संकरे बरामदे में मैं बहुत आगे न जा सका। किसी अनजान भय के वशीभूत मैं उल्टे पांव दौड़ा और तिलिस्मी से जान पडने वाले उस मकान से बाहर भाग आया। बाहर आने पर भी भय यथावत रहा और तुरंत ही मैने सुंदर को वहां से निकल पडने को कहा। उसने पूछा भी कि आखिर हुआ क्या पर तब तक मुंह से कुछ न बोला जब तक गांव से बाहर न निकल आया। गांव से निकल आने ही पर हमने मुंह खोला कि कैसे वहां-उस मकान में-डर लगा कि यकायक कोई पीछे से वार करेगा और मुझे वहीं उस अंधेरे मकान की किसी खोह में दफन कर देगा। इस पर सुंदर ने भी निकल भागने के निर्णय की अनुशंसा की।

और चूंकि हम गांव से तो बाहर निकल आये थे तो अब रात काटने का कहीं अन्यत्र इंतजाम करना था। इस पर दिक्कत यह आ पडी कि सूर्यदेव अस्ताचल में जा चुके थे। राहत की बात यह थी कि कुछ जोर मारकर साइकिल चलाते तो घंटे-भर में हरियाणा में भी घुस सकते थे। चाहे कैसा भी हो— फिर रात-बिरात सफर को हरियाणा बुरा भी नहीं— अपना स्टेट आखिर अपना होता है, यह ख्याल करके हम हरियाणा का लक्ष्य अपने मन में ले लिए। हालांकि आज बहुत साइकिल चलाई थी तो भी हरियाणा ही में कहीं रात काटने का निश्चय कर हम जल्दी जल्दी चलने लगे।

उत्तर प्रदेश से रवानगी

ऐसा ख्याल पडता है कि रात के आठ या साढ़े आठ बजे के लगभग हमने यमुना पार की थी और तुरंत ही गढ-मिरकपुर के टोल बैरियर के पास खेतों में बने उस कोठरे की नजदीक पहुँच गये थे जहाँ पिछली बार-जाते समय-हमने रात गुजारी थी। तब के मच्छरों के डंक साधारण मनुष्य भूल नहीं सकता, तो वहां तो हम गये नहीं, आगे ही बढ़ गऐ। आधा मील चलने पर एक ढाबे पर रुक गये, खाने के वास्ते कम और रात काटने की उम्मीद में अधिक। ढाबे की खाटों पर कुछ देर यूं ही बैठ कर बाद में रोटियां मंगा लीं। ट्रक वालों के साथ बैठ दाल-रोटी खाई। तत्पश्चात ढाबा-मालिक से रात में ठहरने की अनुमति मांगी। उसे भला क्या एतराज होता? कितने ही ट्रक-ठेलों वाले ढाबों पर रात काटते हैं, एक हम ही में क्या ढाबे की जमीन पर वजन बढ़ जाता। चद्दर-कंबल तानकर क्या ही ठाठ से सोये।


हरिद्वार साईकिल यात्रा की कड़ियां (भाग एक से भाग आठ)

भाग-1 भाग-2 भाग-3 भाग-4 भाग-5 भाग-6 भाग-7 भाग-8

4 टिप्पणियाँ

  1. मंजीत भाई क्या कहूं शब्द नही है मेरे पास...

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  2. मंजीत भाई क्या कहूं शब्द नही है मेरे पास...

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  3. मंजीत भाई क्या कहूं शब्द नही है मेरे पास...

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  4. कुछ तो कहिए हजरत, कि ख़्यालात की खबर पड़े।

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