प्रथम स्वछंद (साईकिल) यात्रा — भाग 'पाँच'

सितंबर 10, 2002 (पांचवा दिन)

अगले दिन नौ बजे तक हम ठेकेदार के यहां पहुंचे। देखा कि पहले ही कुछ बिहारी मजदूर उस रेत को ढोने में लगे पङे हैं। ठेकेदार आया नहीं था। मुंशी से पूछा कि भाई ये क्या माजरा है? इस रेत को ढोने का सौदा तो हम कल ही कर गये थे जबकि अब ये लोग इस काम को कर रहे हैं। जवाब मिला कि ये लोग पहले से ही इस काम का सौदा कर चुके थे। कल आ न सके थे, इसलिए तुम्हें मिल गया होगा, पर अब यही इसे करेंगे। वो देखो, वो पांच हैं और तुम केवल दो।
“तो अब हम क्या करें?”
“अगर तुम्हें काम करना ही है तो ईंट ढो लो। यहां नीचे से उपर तीसरी मंजिल पर पहुंचानीं हैं।”

यायावर हुआ मजदूर

यह सुनकर हम लगे एक-दूसरे का मुंह ताकने।
“अब”?
“जैसा तुझे ठीक लगे?”
“पर काम मुझे अकेले थोड़े ही करना है?
“कोई ना।”
“चल फिर”
और हम मजदूर का बाना धारण कर ईंट ढोना शुरू कर दिये। शुरु में दिक्कत हुई। आखिर पच्चीस-तीस सेर वजन लेकर पूरे दिन सीढियाँ चढना मेहनत का काम है। हां मगर ये हो गया कि शाम तक हम इसकी आदत पङ गये। वहां मुझे यह बात बुरी लगी कि गंग-धरा पर मजदूरों के पीने के लिए पानी तक का मुकम्मल इंतज़ाम नहीं है। दोपहर में जब नल सूखा पड़ा था तो कोई चारा न देख हमें लैंटर से टपकता पानी ही पीना पड़ गया। साधारण अवस्था में कौन सीमेंट से चुआ पानी पिऐगा मगर उस समय जबकि जीभ और तालु प्यास से चिपके जाते हों स्वच्छता की फ़िक्र कौन करे? सारांश यही है कि दिन भर हम ईंटें ढोते रहे। बीच-बीच में मुंशी टोकता रहा कि मात्र पांच ईंट लेकर मत चढ़ा करो। ईंटें अधिक मात्रा में उठाओ ताकि मिस्त्री का हाथ न रुके। हम कुछ देर तक अपने सिरों पर ईंटों की संख्या सात या कभी-कभार नौ भी कर देते किंतु कुछ ही देर बाद पांच पर लौट आते।

दोपहर की तफ़रीह का जिक्र हम न करना चाहेंगे क्योंकि आमतौर पर लोग भोजन के लिए तफ़रीह लेते हैं। दस तारीख़ की शाम को काम खत्म होने के बाद हमें अपनी मजदूरी लेनी थी। प्रतिरोज भुगतान की बात हम पहले ही दिन तय कर चुके थे। ठेकेदार भी इसपर सहमत था पर आज शाम न तो ठेकेदार मौजूद था न ही मुंशी। कल ले लेने की सोचकर हम धर्मशाला की ओर चल दिये जहाँ हमने एक कमरा पच्चीस रुपये रोजाना की दर से किराए पर ले रखा था। अवधूत आश्रम वालों के यहाँ कढी-चावल जीम कर—मुफ़्त में नहीं बल्कि दाम चुका कर—हम अपने कमरे पहुंचे। थकान अब अनुभव हुई। हा हा हा हा। अब हंसी आती है सोचकर। लेकिन उस वक्त कमर टुटती थी और हाथ शरीर से अलग हुए जाते थे। किसी तरह सोये। मगर उफ! दस बजे के वक्त सुंदर के दांतों में दर्द हो गया। इतना कि रात ही को मुझे साइकिल उठा कर दवा का इंतजाम करने को भागना पड़ा। इतनी रात में बडे़ शहरों में दुकानें नहीं खुलतीं थीं, छोटे से ज्वालापुर में क्या मिलना था। बहुत खोज के बाद एक पंसारी मिला जिसने लौंग का तेल थमा दिया। रुई को यदि लौंग के तेल में भिगो कर दांतों तले दबा लिया जाय तो जाड़-दांत का दर्द जाता रहता है। सुंदर वाकई इससे चैन से सो सका।


हरिद्वार साईकिल यात्रा की कड़ियां (भाग एक से भाग आठ)

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