प्रथम स्वछंद (साईकिल) यात्रा — भाग 'चार'

सितंबर 09, 2002 (चौथा दिन)

सुबह चार बजे—जबकि हम कह सकते थे कि हां, हमने सफलतापूर्वक रात काट ली है—बस घंटे भर की बात थी और जैसे ही आंखों को रोशनी महसूस हुई हमने खुद को एक-दूसरे को देखते हुए पाया। थोड़े समय बाद पंडित आया और ताला खोल गया, साथ ही जल्दी निकल जाने की ताकीद भी कर गया। हम बाहर निकल कर कुछ देर इधर-उधर टहलते रहे, यूं ही। पास के खेतों में ज्वारें थीं। फिर उनमें अंतर्ध्यान होकर जो करना था किया और चाय के खोमचे की ओर लौटे। आज किसी भी तरह प्रथम चरण को खत्म करने—यानि हरिद्वार पहुँचने—का संकल्प लिया जा चुका था। हाथ-मुंह धोते ही हम अपनी अपनी काठियों पर सवार थे।

प्रथम चरण — अंत या आदि!

आज मौसम फिर से मेहरबान था। बादल नहीं थे। सूर्यनारायण अपनी रश्मियों से जीव-मात्र में जीवन भरने में लगे थे। सुप्त कोंपलें खुलने लगीं थीं। रात के बरसे पानी में केचुए अपने लिजलिजे शरीरों को सिकोड़ और फैला रहे थे। सङक पर जुगाड़ देखे जो बालकों को पाठशालाओं तक ढोकर लगाने के वास्ते आ-जा रहे थे। लङकों के कितने ही रेले सङक के किनारे चल रहे थे। जल्दी जल्दी पैडल मारते दोपहर होने से पहले ही रुङकी पार कर सोलानी नाले का पुल आया तो पहाड़ियों के प्रथम दर्शन हुए। आज सफर को समाप्त करने की वैसे भी जल्दी थी, पहाड़ियों को देख कर थोड़े और जोशमीन हुए। फलतः पैडल जल्दी जल्दी चले। फलतः एक बजे ही ज्वालापुर जा पहुंचे। ज्वालापुर से हरिद्वार रह ही कितना गया। तो अब आराम पर हमारा अधिकार था। रेल का पुल उतरकर गुरुकुल कांगड़ी के सामने बैठ गये। महापंडित के जमाने में कभी इसे ‘बुद्धु पैदा करने की फैक्टरी’ कहा जाता था। क्यों? सो तो हम नहीं जानते लेकिन आज जबकि “प्रथम परवाज़” लिखा जा रहा है इसे विश्वविद्यालय का दर्जा मिल चुका है। वहीं एक पेड़ की छांव में बैठ चने-पानी के फांके शुरु हो गये। इसी दरमियान जैसे चम्म से बत्ती जली। “आज यात्रा का चौथा दिन है। तनिक देखा जाये कि गांठ में क्या बचा है।” पोटली खोली, रुपए गिने। अब से पंद्रह वर्ष पहले आजीविका मंहगी होने लग गई थी तब भी आज जितनी आग तो नहीं ही लगी थी। जोड़-गांठ करके चलते रहने पर हम दो जनों के पांच सौ रुपये कुल चार दिन में खर्चा हुए। हां इसमें कंबल और रसोई-पाक के औजारों की खरीद भी शामिल रही। विचार हुआ कि साइकिल हैं, हम हैं, हारी-बीमारी की आपात स्थिति के लिए भी अंटे में कुछ होना चाहिए। कमसकम पांच सौ रुपयों का आपात-फंड तो होना ही चाहिए। तो इस प्रकार शेष मात्र दो सौ रुपयों के साथ दो जन कितने दिन और घुमना-फिरना करेंगे? आगे के लिए कहाँ से रुपये आयेंगे? किसी से मांग लेने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। कौन दो अनजान लङकों को उधार देने वाला था? किशोर अवस्था की जाट-बुद्धि ने तब यह स्कीम भिङाई कि कहीं काम ढुंढ लेते हैं। हम कमखर्चों के लिए तीन रोज में सप्ताह भर के लिए आवश्यक रकम इकट्ठा हो जायेगी।

काम वास्ते तलाशारंभ!

पर समस्या आई कि काम ढुंढें कहाँ, और कौन मात्र तीन रोज के लिए हमें काम देगा? अब यह तो नहीं बताना है कि हमने कहाँ कहाँ काम ढूंढा। पर यहां वहां पूछते-बूझते ज्वालापुर के श्रृद्धानंद चौक तक जा पहुंचे। कहीं काम न मिला। आखिरकार अचानक एक निर्माणाधीन इमारत पर नजर गई। पता चला कि मारुति का कुछ बनने वाला है। दोनों पहुँच गये। दसवीं पास वालों की कोई पूछ न थी। हम काम मांगने वाले थे और काम देने वाला था ठेकेदार। मालिक ठेकेदार और हमारे बीच जैसी बातचीत आरंभ हुई, उसका मुखड़ा हम पहिले ही दिखला चुके किंतु काम पर चढने के लिए मिलने वाली मंजूरी की कहानी—जोकि उदधृत की भी जानी चाहिए—हम न सुना सकेंगे। वह बातें कर्णप्रिय नहीं हैं। रेती-बजरी के ढेर वहां कितने ही पङे थे। यहां और कुछ नहीं रेत ढोने का काम हमें मिल गया। जाट-जमींदार के बालकों को कस्सी फावड़े बजाने में क्या दिक्कत। दो घंटे रेत ढोया, पचास रुपए बने। फिर सांझ ढलने लगी। ठेकेदार से सौदा कर लिया कि सारा रेत हम ही डाल देंगे। करीब तीन ट्रक रेत तो होगा ही, दो दिन में काम खत्म कर देंगे। हमारे चार-पांच सौ रुपये बन जायेंगे। सुबह वापस काम पर आने की ठहरा कर ज्वालापुर में ही गुर्जर धर्मशाला में जा टिके। एक कमरा मिल गया, साथ ही एक चौङी खाट भी मिल गई। रोजाना पच्चीस रुपये किराया ठीक हो गया।

दाम देकर आराम — उचित या अनुचित!

इन पंक्तियों के लेखक ने तब जीवन के सोलहवें वर्ष का मुंह देखा ही था और आजाद घुमक्कड़ी पर तो पहली दफे ही निकला था। जाहिर है सब तरह के अनुभव की कमी वहां रही होगी। ऐसे में पाठक लेखक से रोष न रखें कि मंदिर-मठों और राह-सरायों में न ठहर विश्व-भ्रमण को निकले एक घुमक्कड़ ने क्यों किराए पर रहना चुना? इसका उत्तर यही हो सकता है कि मुफ़्त रैनबसेरों का लेखक को मालूम न हुआ हो या फिर उसे ऐसा कोई टिका मिला ही न हो। आखिर रात आई है तो काटनी ही पड़ेगी, नाम—शाम नहीं तो रुपए देकर। फिर लेखक मध्यम वर्ग से संबंधित नौतरुण था जिसे चिथड़ों में लिपटकर फुटपाथ पर रात काटने का अभ्यास नहीं। वह परमानेंट मजदूर बनने को घर से नहीं निकला और दिनभर मजूरी करके रात में आराम से सोना चाहता है कि शरीर की उर्जा की पुनःपूर्ति बनाए रखे। भले ही इसके लिए रुपये खर्च करके सोना पड़े। आखिर इसी शरीर को साथ लेकर उसे घुमक्कड़ी करनी है। वास्तव में प्रथम परवाज़ एक अहम दस्तावेज़ है जो भावी नवतरुणों का मार्गदर्शक होगा जबकि पहली बार वे घर छोड़ कर निकलेगें। पूर्व में एक आम लड़के—जो उसी पथ का पथिक रह चुका—के स्वानुभवों को होने वाले नौघुमक्कड़ों को जान लेना चाहिए।


हरिद्वार साईकिल यात्रा की कड़ियां (भाग एक से भाग आठ)

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