प्रथम स्वछंद (साईकिल) यात्रा — भाग 'तीन'

सितंबर 08, 2002 (तीसरा दिन)

रात जो काढ़ा पीया था उसने जिलवा दिया। सवेरे उठे तो हम वो न थे, जो कल थे। यद्दपि उस चमत्कारिक देसी दवा का नुस्खा हमने पूछी थी पीछे जिस पर भूल पड़ गयी। शहद, हल्दी और तुलसी भर ही घटक याद रहे। सवेरे के नाश्ते में देसी घी के दही-पराठे खाने में आये। तनमन संपूरित हो उठे। सूर्यनारायण की उठती हुईं रश्मियों के साथ ही साथ हम भी चलने को तैयार हुए। राम-राम के साथ विदा लेते हुए सलाह मिली कि यदि चनों के साथ उतनी ही मात्रा में मीठे मखाणे मिला कर बीच-बीच में फाका मारते जायें तो रोटियों की जरुरत कम पङेगी। दाहा से तीन ही कोस पर बुढ़ाना नगर आ जाता है। तो बुढ़ाना में हमनेे किया क्या कि ढाई सेर चने और इतने हीे मखाणे ख़रीद लिए।

इस ग्रास ने इतना बढ़िया काम किया कि रोटियों की जरुरत आधे से भी कम रह गई। आठ-दस मील चलते और किसी पेड़ की ठंडी छांव में बैठ कर चनों के फाके मारते। कुछ सुस्ताते, ठंडा पानी पीते और यात्रा पुनः आरंभ कर देते। जठराग्नि के दमन के लिए यह कोई सम्माननीय तरीका तो नहीं कहा जा सकता किंतु कटोरा उठा लेने की नौबत आये, उससे तो यह ठीक ही था। यात्रा के तीसरे दिन इंद्रदेव की भी मेहर रही कि बादल तो रहे पर बरसे नहीं। सुफलत: एक ही दिन में बुढ़ाना और मुज़फ़्फरनगर शहर को पार कर उत्तराखण्ड में दस्तक दे दी। मुज़फ़्फरनगर बहुत बङा और बहुत पुराना शहर है। कितनी ही कहानियाँ जुड़ी हुईं होंगी इस शहर से। उन कहानियों का जिक्र अन्यत्र के लिए हम छोड़ रखते हैं कि यह यात्रा-वृतांत निर्बाध बहे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सर्वप्रथम स्टूडियो इसी शहर में खुला था, जो आज भी कर्मरत है। यहाँ की तंग और भीडभरी सङकों से गुजरते हुए कुछ सिनेमाघर देखे, जैसा नाम वैसा काम वाले। एक एक्स.वाई.जेड. टाॅकीज़ पर फिल्म लगी हुई थी, मुगल-ए-आजम। रंगीन सिनेमा, नहीं नहीं, एच.डी. डिस्प्ले के दौर में किसी सिनेमाघर पर बावन साल पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म चढ़ी होना हैरान कर गया! क्या वजह रही होगी इतनी पुरानी फिल्म लगाने की? लगी है तो कोई देखने भी जरुर ही आता होगा, बल्कि बहुत आते होंगे। एक-दो भर के लिए कौन सिनेमा चलाता है? क्या ये शहर इतना ओल्ड-फैंशड है? मुज़फ़्फरनगर ही से एक कंबल भी खरीदा हमने। रात में हालत पतली पङ जातीं थीं ठंड के आगे।

उत्तराखण्ड में प्रवेश

उत्तर प्रदेश को लांघ कर उत्तराखण्ड में घुसे ही थे जब बारिश फिर आंरभ हुई। हालांकि आज जद्दोजहद वाली परिस्थितियाँ नहीं रहीं और बारिश भी तभी शुरु हुई जब हम रुकने वाले थे। असल में रात काटने का हमारा कोई भी निश्चित ठिकाना नहीं होता था। जहाँ दिन ढलता वहीं कोई आसरा ढूंढ लेते। उस रोज दिन ढले हम गुरुकुल नारसन में थे और वहीं रात काटने के लिए जगह की टोह में थे। यह इतनी छोटी जगह थी कि यदि दुपहिया चौपहिया मोटर में हों तो पता भी नहीं लगता कि यह कब पार हो गया। हाल समय में तो शायद एक बाईपास यहाँ भी बन गया है। यह बस एक तिराहा भर ही था। बाजार के नाम पर चाय के दो खोमचे, कुछेक रेहङियां, और एक हलवाई की दुकान भी। कुछ छोटी-मोटी दुकानें और एक मंदिर भी था। मंदिर में ठौर मिलने की पूरी संभावना थी। भला कोई पुजारी दो पथिकों के रुकने का इंतजाम क्यों नहीं कर देगा, हलवाई के यहाँ छप्पर के नीचे बैठे बैठे मैं यही सोच रहा था। सुंदर क्या सोच रहा था, नहीं मालूम। पर हम चुप बैठे थे, एक दूसरे से बगैर कोई बातचीत करे। जबकि उस बख़त हमें रात्रि-ठौर के लिए सलाह मिलाते पाया जाना चाहिए था। ऐसा क्यों था? पता नहीं। बङी देर बाद हलवाई ने ही टोका। “अरै कङै कू जाणा तमनै लौंडो। यहां के तो ना लग रे तुम।”
“भाईसाब जाना तो हरिद्वार है। पर अब रात घिरने को आई। सोचते हैं यहीं कोई छत मिल जाये सर छुपाने को।”
“हम्म। पर भाई यहां तो कुच मिलणे का ना।”
“वो सामने मंदिर में… कुछ जुगाड़ हो सकता है क्या?”
“भाई वो मंदिर कम, घर ज्यादा स। पंडत स घरबारी माणस। मुश्कल स। बूझ ल्यो जाकै।”

उत्तराखण्ड में मंदिर में रात्रि-विश्राम

हम गये। मदद की गुहार लगाई। थोड़ी ना-नुकुर के बाद पंडित पिघल गया और एक सीलन भरा कमरा हमें दे दिया। सीलन की वजह से रेत इसके फर्श पर चिपक गया था। मकङियों से तो खैर कोई दिक्कत नहीं होनी थी क्योंकि वे हमारे सिरों से अधिक उंचाई पर अपने ही बुने जालों में उलझी पङीं थीं। सफाई के लिए न वक्त था, न होश, न जोश और न ही जरुरत। हलवाई के यहाँ से दो अखबार मांग लाये और बिछौना तैयार कर लिया। रात के खाने में चना-भोज का भोग लगाया। इस कमरे के साथ बस एक ही दिक्कत थी। इसमें एक दीवार नहीं थी, सामने की, जहां दरवाजा होता है और यह सङक पर ही खुलता था। दीवार के स्थान पर इसकी छत को सपोर्ट देने के लिए अगल-बगल की दोनों दीवारों पर टिकाकर रखे गये कंक्रीट बीम का उपयोग किया गया था। बडे़ जानवरों और अवांछित घुसपैठियों के प्रवेश को रोकने के लिए एक कैंची-गेट भी वहां था जो पूरी दीवार की चौड़ाई का था। हमें कमरे के भीतर घुसाकर कैंची-गेट को ताला जड़ दिया गया और चाभी पंडित अपने साथ ले गया। अब पौ फटने तक हम कमरे के बाहर नहीं आ सकते थे, चाहे कैसी भी इमरजेंसी होती। कुछ भी हो, पर हम इस बात से संतोष कर सकते थे कि हमारे सिर पर एक छत है और ग्राउंड लेवल से उपर हैं जिससे बारिश होने की स्थिति में पानी हमारे पैरों नीचे नहीं घुमेगा। यही नहीं जरुरत पङने पर हम दुसरे छोटे जीव-जंतुओं की सहायता करने की स्थिति में भी आ गये थे जो बगैर पूर्वाज्ञा आसानी से कैंची-गेट के आरपार हो सकते थे। रात्रि आती है तो कटकर जाती भी है। इस रात्रि के पहर भी गुज़रे।


हरिद्वार साईकिल यात्रा की कड़ियां (भाग एक से भाग आठ)

भाग-1 भाग-2 भाग-3 भाग-4 भाग-5 भाग-6 भाग-7 भाग-8

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