प्रथम स्वछंद (साईकिल) यात्रा — भाग 'एक'

घुमक्कड़ होना आसान चीज़ नहीं। और यह भी नहीं है कि चाहे जिस उम्र में यायावरी शुरू कर दी जाये। यह “जब जागो तब सवेरा” वाली चीज़ नहीं है। वास्तव में इसके बीजांकुर बालपन ही में फूटने लगते हैं। पश्चात, किसी वृक्ष की भांति फलने-फूलने के लिए इसे समय की खाद चाहिए, उम्र का अवलंब चाहिये, अनुभवों का जल चाहिये। “प्रथम परवाज़” ऐसे ही महत्वपूर्ण घटकों का—उन्मुक्त यायावरी के लिए आवश्यक—समेत किस्सागोई संग्रह है। लेखक के जीवन की यात्राओं—और स्वयं जीवन यात्रा ही—का प्रकाशन तो खैर बाद में होने वाला ही है परंतु यहां घुमक्कड़ी जीवन के आरंभिक दिनों के कुछ तजरबे प्रकाशमान किये देते हैं। हरियाणा प्रांत के बराही ग्राम से निकल कर जब पहिली दफा घुमक्कड़ी पथ पर पग रखा और उस दौरान जो कुछ देखा-भोगा उसका वर्णन किया जाता है।

घुमक्कड़ी का बीजाकुंरण

प्रथम परवाज़ से पूर्व ही कुछ यात्राएँ हम कर चुके थे। मध्यम लंबी यात्राओं की पहली स्मृति पांच वर्ष की आयु की आती है जब जम्मू से परे वैष्णो देवी की यात्रा की। इसके पश्चात-लगभग हर दूसरे वर्ष-कहीं न कहीं यात्राएं होती रहीं यद्दपि सभी पिता की छाया में। बारहवें वर्ष तक आते आते तो कितनी ही यात्राएं रेल और मोटरों पर हम कर चुके थे। तरुणाई में प्रवेश करते हुए तो घुमक्कड़ी पंथ में दीक्षित होने की उत्कंठा चरम पर पहुंचने लगी थी। भला पत्र-पत्रिकाओं में छपे लेख-तस्वीरों से कब तक मन बहलाव किया जा सकता था। उल्टे उन्हें देखने-पढ़ने से घुमक्कड़ी की ज्वाला और अधिक भड़का करती। स्थानों के साक्षात् दर्शन की प्रबल ललक का कब तक बलात्कार किया जा सकता था। मिडिल के दिनों विद्यालय से राजस्थान, आगरा, हिमाचल में नियमित टूर भी जाने लगे थे। हां, हम उनमें कभी न जा सके। तब निरंतर उहापोह में हम रहते कि बांधव-बंधन से मुक्त हो कब उन्मुक्त उड़ान का अवसर प्राप्त हो। इसमें एक सुभीता अपने वालदैन का इकलौता चश्म-ओ-चिराग न होना हमारे लिए था।

1999 में मिडिल में उम्दा अंकों से पास होने के ईनाम में एक साइकिल हमें रसीद हो गई थी जिस पर मैट्रिक निकलते निकलते घर-ग्राम के दस मील के घेरे की मिट्टी चढ़ चुकी थी। बेवजह इधर-उधर भटकने से होता कुछ नहीं था पर यह था कि प्यासे हलक में शबनम की बूंदें कुछ टपक जाया करतीं। जीवन की सोलहवीं गर्मी यानि इंटर (साल 2002) आते आते हमारा एक जगह टिके रहना लगभग असंभव हो गया। जीवन के सोलहवें वर्ष के साथ यही सबसे बडी़ दिक्कत है। तजरबा तो कुछ होता नहीं और उमंगें तारे तोड़ लाने की होतीं हैं। इधर अपने जोश का जोर इतना था कि गर्मीयां तो किसी तरह ढल गईं पर बरसात न झेली जा सकी। बरसात के चार मासों को बुद्धदेव ने भी देशाटन को वर्जित किया है पर सब सद्वाणी सुने कौन।

उन्मुक्त घुमक्कड़ी की ओर

आखिरकार अगस्त में बाद रोजे़-पैदाइश यह फैसला हो गया कि अगले ही माह सब छोड़-छाड़ कर निकल जाना है। बरसात भी कुछ कम तब तक हो जायेगी। परंतु सितंबर के आरंभ तक भी झमाझम जारी रही, बल्कि बढ़ी। सितंबर का प्रथम सप्ताह बहुत ही कष्टकारी और कठिनाईपूर्ण सिद्ध हुआ। एक ओर तो थी घुमक्कड़ी पथ पर निकल पड़ने की चरम उत्कंठा तो वहीं दूसरी और था घर-परिवार के छूट जाने से उत्पन्‍न होने वाला दुख। अनेक भावों की लहरों पर डूबते-उतराते अंततः चले जाने का दिन भी आ गया। सितंबर 6, 2002 को सवेरे विद्यालय जाने को निकला लड़का कहाँ जाने वाला था, कौन जाने? साथ में था कुनबे का ही एक और तरुण जो नाते में तो चचा होता था पर उम्र और ख्याल में अभिन्न सखा। प्रस्थान से एक दिन पहले घर से एक मील दूर खेतों में जा छुपाई गई बोरी, जिसमें पहले-पहल के दिनों के लिए कुछ नून-आटा घर से चुराया था, उठाई और चले। यायावर ने सर्वप्रथम हिमालय ही को चुना। हिमालय ही क्यों? कौन कह सकता है, लेखक ही कहां, किंतु संभवतः पर्वत-प्रेम के कारण।

साइकिल पैदल से तेज चल सकती है यह नहीं, किंतु इस ख्याल से कि इब्तिदा-ए-असफार में अधिक पदयात्रा कहीं थका न दें, साइकिल पर ही शुरुआत करने की हमने जानी। बाद का किसने देखा है? हमारा सहचर भी अपनी साइकिल ले कर चला। नक्शे पढ़ने तो प्राइमरी ही से आरंभ कर दिये थे। मिडिल निकलते निकलते तो भारत के हर राज्य, राजधानी और बडे़ शहरों की लोकेशन नक्शे पर खूब मालूम पड़ गई थी। अब हकीकत की जमीन पर उनका साक्षात्कार करना था। सवेरे बराही से बहादुरगढ़ और वहां से पश्चिमोत्तर दिल्ली के नरेला पहुंचे। पहिले कुछ जजमा था पर नरेला ही में मन पक्का बन गया कि पर्वतराज ही से शुरुआत करनी है। और क्योंकि हिमालय की गोद में चढने के लिए हरिद्वार ही सबसे नजदीक था तो हमने यहाँ वहां बूझ कर रास्ते का आइडिया भी कर लिया। इसी में दोपहर हो गई। तत्पश्चात नरेला ही से एक नक्शा और कुछ रसोई के औजार, जैसे तवा बेलन चिमटा आदि ख़रीदे और सिंघु सीमा से वापस हरियाणा में घुसकर जी टी रोड़ पर आगे बढे। बीच-बीच में बूंदाबांदी संग चलती रही। तरुणावस्था का उभरता हुआ शरीर था, तिस पर सुबह से साइकिल चलाने की मेहनत, भूख बडे जोर की लगी थी। यह भूख जो है—चाहे कैसी भी हो—तरुणों के लिए बहुत कठिनाई भरी होती है। यह कठिनाई तब कहीं अधिक असहाय हो जाती है जब संधान साधन नियरे हो। रुपये जेब मेें थे और रोटियां जी.टी रोड़ के ढाबों पर, चाहे जितनी खाओ। परंतु स्व-क्षुधा भक्षण करते हम चलते चले गये। कदाचित् यह अत्यावश्यक भी था। यायावरी में भूख ही को खाने का अभ्यास आवश्यक है। गोधूलि की बेला आने को थी जबकि हम बहालगढ के चौक पर पहुंचे। तो तब रात काटने का ठौर ढूंढने की कवायद शुरु हुई।

यमुना तीरे यायावर का ठिकाना

बहालगढ से एक बहुत पुरानी सड़क उत्तर प्रदेश की ओर गई है। हरिद्वार के लिए हमें इसी पर आगे बढना था। हरियाणा के कितने ही बडे इलाके को यमुना लांघकर उत्तर प्रदेश से जोडने के लिए कितनी शताब्दियों से यह यहाँ बिछी पडी है, कौन जाने। इस सड़क पर एक के बाद एक गुजरते गांवों से होकर निकलते गये पर अपने मतलब की जगह दिखाई नहीं दी। यमुना के तीर से थोडा पहले एक गांव गढ मिर्कपुर आबाद है। इसी के खेतों में एक कोठे को देख रुक गये और भरपूर अंधेरा होने पर—जबकि यह विश्वास हो गया कि अब खेतों में कोई न होगा—सड़क से उतर कर हम उसमें गये। खेतों के कोठरे जैसे होते हैं वैसा यह था- वीरान, सुनसान फटेहाल। पलस्तर के कपड़े कब के उतर चुके थे और यह नंग—धड़ंग—मलंग अपनी ईंटों को लिए अपनी मौज में खड़ा था। कोठे के चारों ओर धान के खेत पानी में लबालब भरे खडे थे जिनके बीचोंबीच वह तैरता सा मालूम होता। नाना वृक्षों की कोई कमी न थी, पर, घुप्प अंधकार में वो क्या क्या थे सो न दिखा।

पहली घुमक्कड़ी — और, मोह की डोर

प्रकृति की गोद में सर रख हमें मातृांचल से बाहर अपनी पहली रात काटनी थी। झींगुुर गान की लोरियां आरंभ हो चुकीं थीं। परंतु नींद आंखों से कोसों दूर कहीं लापता थी। घर का ख्याल आता था। घर क्या यूंही छूटता है? अब न जाने माता क्या करती होगी? पिता ने कोई निवाला तोड़ा होगा? अनुज क्या क्या विचार करता होगा? बगैर कोई अंदेशा दिये ग़ायब हो जाना ह्रदयाघात दे सकता है परिजनों को। तो जिनसे आप भू पर भये हैंं, उनका कुछ विचार कर, यदि घुमक्कड़ी पंथ में दीक्षित होना ही है, कुछ संकेत पूर्व ही में छोड़ते चलना चाहिये। पूत के पांव पालने ही में दिखने लगेंगे तो पश्चात उन्हें संभलने में सहूलियत रहेगी। ऐसा नहीं कि हमें माता-पिता से प्रेम नहीं, और हमें अपने प्रेम का सर्टिफिकेट भी क्या दिखाना है, किंतु एक रोज तो गृह-त्याग करना ही है। मनुष्य अपनी माता के पल्लू से बिंध कर तो बैठा नहीं रह सकता है। यदि आज हम घुमक्कड़ बन कर न निकलते तो चार वर्षोपरांत रोज़ी की तलाश में निकलते। जिस तरह माता एक नियत समय से अधिक जीव को गर्भ में नहीं रखे रख सकती है उसी तरह पिता भी बालक का एक नियत समय ही तक भरण-पोषण कर सकता है। तरुणावस्थोपरांत तो गृह-त्याग आवश्यक हो जाना है। यदि स्वयं आप घर से नहीं निकल कर चलेंगे तो वैसा करने के लिए आपको विवश कर दिया जायेगा। विचार-श्रृंखलाओं के मकड़जाल में उलझे ही घर से लाईं रोटियों को खाकर सलीके से कमर सीधी की भी न थी कि जाने कैसे उस भंयकर अंधकार में मच्छरों को हमारा पता मिल गया। संख्या में वे इतने थे जितने नभमंडल में तारे भी नहीं हो सकते। जलाशय बने खेतों के बीच उनकी कोई कमी थोड़े न थी। यदि कोई चादर होती तो किसी तरह बचाव की तदबीर करते पर अब सिवाय शिकार होते रहने के क्या राह रही?


हरिद्वार साईकिल यात्रा की कड़ियां (भाग एक से भाग आठ)

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